↧
भाजपा जाटों को मूर्ख तो नहीं बना रही है ?
↧
प्रधानमंत्री के नाम पत्र
मेरे पत्रकार मित्र प्रमोद रंजन जी का यह मेल मैं यहाँ यथावत लगा रहा हूँ जिसमें प्रेमकुमार मणि जी का पत्र "प्रधानमंत्री के नाम"से संलग्न है ! यह पत्र संभव है मार्च २०१६ के फारवर्ड प्रेस के अंक में आये ?
प्रिय मित्र,
पिछले कुछ समय से चल रही जेएनयू की घटनाएं जटिल होती जा रही हैं। कल केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी ने संसद में जो भाषण दिया, उसमें महिषासुर दिवस का भी जिक्र किया। इस संदर्भ में हम फारवर्ड प्रेस के आगमी अंक में कई सामग्री प्रकाशित कर रहे हैं। लेकिन मासिक पत्रिका होने की दिक्कत यह है कि जब तक वह अंक आपके हाथों में आएगा, तब तक कई बातें शायद पुरानी लगने लगें। इसलिए, अगले अंक में प्रकािशित हो रहे प्रधानमंत्री के नाम हिंदी लेखक प्रेमकुमार मणि का पत्र आप लोगों को इस मेल के साथ भेज रहा हूं। कुछ और सामग्री कल भेजूंगा। इनसे आपको संदर्भ को समझने में सुविधा होगी।
प्रिय मित्र,
पिछले कुछ समय से चल रही जेएनयू की घटनाएं जटिल होती जा रही हैं। कल केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी ने संसद में जो भाषण दिया, उसमें महिषासुर दिवस का भी जिक्र किया। इस संदर्भ में हम फारवर्ड प्रेस के आगमी अंक में कई सामग्री प्रकाशित कर रहे हैं। लेकिन मासिक पत्रिका होने की दिक्कत यह है कि जब तक वह अंक आपके हाथों में आएगा, तब तक कई बातें शायद पुरानी लगने लगें। इसलिए, अगले अंक में प्रकािशित हो रहे प्रधानमंत्री के नाम हिंदी लेखक प्रेमकुमार मणि का पत्र आप लोगों को इस मेल के साथ भेज रहा हूं। कुछ और सामग्री कल भेजूंगा। इनसे आपको संदर्भ को समझने में सुविधा होगी।
कायदे से होना तो यह चाहिए था कि इन तथ्यों को जनतांत्रिक व समाजवादी, साम्यवादी मुल्यों के पक्षधर सांसद सदन में रखते, जिससे यह बात दूर तक पहुंचती। कल राज्य सभा में इसी विष्य पर चर्चा है, देखना यह है कि कल सत्ताधारी पक्ष क्या कहता है और विपक्ष में बैठे सांसद उसका कितना विरोध कर पाते हैं।
-प्रमोद रंजन
भारत को समझो मोदी जी!
मैं समझता हूं हर नागरिका को अपने प्रधानमंत्री से सीधा संवाद करने का अधिकार है और यह पत्र के द्वारा हो, तब दुर्लभ एप्वाइंटमेंट का झंझट भी नहीं आता। इसलिए मैंने यही माध्यम चुना है।
देश में पिछले दिनों कई तरह की वारदातें हुईं। मैं नहीं समझता इसे आपको बताने की जरूरत है। यह सही है इतने बड़े देश में अनेक तरह की घटनाएं घटती रहेंगी और छोटी-छोटी घटनाओं की नोटिस लेने के लिए आपका कीमती वक्त बर्बाद भी करना नहीं चाहूंगा। लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि लगता है हमारा वजूद हिल जाएगा। आज कुछ हद तक हम इसी स्थिति में आ चुके हैं। पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो हुआ और उसके बाद पहले दिल्ली और फिर देश के अन्य हिस्सों में जो हो रहा है, वह सब बेहद गंभीर है और मैं चाहूंगा कि पूरे मुद्दे पर पहले आप स्वयं गंभीरता से चिंतन करें। मैं आपको व्यक्तिगत स्तर पर सोचने की बात इसलिए कह रहा हूं कि मुझे प्रतीत होता है आप स्वयं इस विषय पर गडमड हैं। यह आपके क्रियाकलापों से प्रकट होता है। संसद के प्रवेश द्वार पर माथा टेकने से लेकर सभा-सम्मेलनों में दोनों हाथ उठा-उठाकर भारत माता की जय के उद्घोष जैसे क्रियाकलापों से आपके अंतरभाव प्रकट होते हैं। क्या कभी आपने अपना मनोविश्लेषण किया है? मेरा आग्रह होगा, समय निकालकर यह जरूर कीजिए। क्योंकि इससे पूरे देश का भवितव्य जुड़ा है। रूसी लेखक चेखव ने कहा है मनुष्य को केवल यह दिखला दो कि वास्तविक रूप में वह क्या है, वह सुधर जाएगा। इसी भरोसे मैं आप में सुधार की एक संभावना देख रहा हूं। प्रधानमंत्री जी, सबसे पहले तो आप अपनी स्थिति समझिये। आप कोई सवा सौ करोड़ लोगों के चुने हुए भाग्य विधाता हो। एक महान राष्ट्र के प्रधानमंत्री, वास्तविक शासक। कभी चंद्रगुप्त, अशोक, अकबर जैसे लोग जिस स्थिति में थे, वैसे। उन लोगों के समय में भी भारत इतना बड़ा कभी नहीं रहा। चंद्रगुप्त और अशोक के समय हमारी सीमाएं पश्चिम में तो बढ़ी हुई थी, लेकिन दक्षिण मौर्यों के हाथ नहीं था। अकबर के समय भी इतना बड़ा भारत नहीं था।
लेकिन भारत केवल भौगोलिक भारत ही नहीं रहा है। एक सांस्कृतिक भारत भी है हमारे पास। जैसा की रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है कि 'भारत एक विचार है न कि एक भौगोलिक तथ्य।’इस भारत की रचना शासकों ने नहीं कवियों, मनीषीयों, दार्शनिकों, संतों और सच पूछें तो प्रकृति ने स्वयं की है। यह भारत हजारों साल में बना है। इसकी रचना प्रक्रिया सहज भी है और जटिल भी। जाने कितने आख्यान, कितनी पौराणिकता, कितने काव्य, कितने गीत, कितना भूत, कितना भविष्य मिला है इसमें और यह भारत आज सवा सौ करोड़ लोगों की धड़कन बन गया है।
आप जरा अतीत में जाइए अपने सांस्कृतिक आख्यानों और पौराणिकता में। इतना तो जानते हीं होंगे कि यह जो भारत शब्द है भरत से बना है, दुष्यंत और शकुंतला के प्यार-परिणय से उद्भूत भरत, जिनका जन्म और पालन किसी राजमहल में नहीं ंएक ऋषि के आश्रम में हुआ। ये आश्रम वनांचलों में होते थे, जहां आज आपकी सरकार ग्रीनहंट कर रही है, क्योंकि आपकी नजर में वहां देशद्रोही पल-बढ़ रहे हैं। अत्यंत मनोरम और मर्मस्पर्शी कथा है भरत और उनकी मां शकुंतला की। और फिर हमारे महान ऋषि द्वैपायन कृष्ण, जिन्हें वेद व्यास भी कहा जाता है, ने एक खूबसूरत महाकाव्य लिखा महाभारत- जो आरंभ में ‘जय’ और ‘भारत’ था। महाभारत हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक धरोहर है। अब इस भारत-महाभारत को बस सौ साल पहले कुछ लोगों ने भारत माता बना दिया। आपने कभी सोचा कि भारतवर्ष भारत माता कैसे बन गया? दरअसल इंग्लैंड के लोग अपने देश को मदरलैंड कहते हैं। भारत में जन्मभूमि को पितृभूमि कहने का प्रचलन था। आप तो संघ के प्रचाारक रहे हो। इस तथ्य को ज्यादा समझते होंगे। अंगे्रजी संस्कृति के प्रभाव में कुछ लोगों ने इसमें मातृत्व जोड़ा और भारत, भारतमाता में परिवर्तित हो गया। चूंकि यह कारीगरी करने वाले बड़े लोग थे, सामंत जमींदार थे-जिनके बैठकखानों में बाघ, शेर के खाल लटके होते थे, ने इस भारत माता को बाघ, शेर पर बैठा दिया। इन बड़े लोंगंो की माता गाय, भैंस पर कैसे बैठतीं। सोचा है कभी आपने कि सामान्य जन ने भारत माता की निर्मिति की होती तो कैसी होंतीं भारतमाता? शायद वह कवि निराला की एक कविता पंक्ति की तरह 'वह तोड़ती पत्थर’होती। हिंदी के प्रख्यात कवि पंत ने भी एक भारत माता की मूर्ति गढ़ी-
भारत माता ग्रामवासिनी
तरुतल निवासिनी।
पंत की भारत माता पेड़ तले रहती हैं, निराला की पत्थर तोड़ती हैं। यदि किसी ग्रामीण सर्वहारा ने मूर्ति गढ़ी होती तो चरखा चलाती या बकरी चराती भारत माता होतीं।
लेकिन आप इस भारत माता के प्रधाानमंत्री नहीं हो। आप उस भारतवर्ष और अब केवल उस भारत-जिसे संविधान में दैट इज इंडिया कहा गया है के प्रधानमंत्री हो। इस भारत की रचना हमारे महान स्वतंत्रता आंदोलन के बीच से हुई। जिसे पूर्णता हमारी संविधान सभा ने दिया। हमने 26 जनवरी , 1950 को इसे अंगीकार किया। 'हम भारत के लोग इसे आत्मसात और अंगीकार करते हैं’। हमने एक महान सांस्कृतिक पीठिका पर विकसित राजनीतिक भारत को आत्मसात किया। संविधान हमारी आत्मा बन गई, जैसा कि आप भी कहते हो हमारा धर्मग्रंथ बन गया।
लेकिन कुछ लोगों ने इसे आत्मसात नहीं किया। हमारा संविधान समानता, भाईचारा और स्वतंत्रता के उन नारों को आत्मसात करता है जिसे कभी फ्रांसीसी क्रांति ने तय किया था। यह हर तरह के विभेद को नकारता है और सबको अवसर की समानता दिलाने का भरोसा देता है। इसमें अपने को लगातार विकसित करने, सुधारने और समय से जोडऩे की ताकत है और समय-समय पर हमने यह किया भी है। सब मिलाकर यह एक ऐसा आदर्श संविधान है जिसपर पूरे देश ने अपनी सहमति जतायी है। कुछ लोगों ने इससे खिलवाड़ करने की भी कोशिश की, जैसे 1975 में इमरजेंसी, लेकिन उन्हें भी आखिर झुकना पड़ा।
और आज जो भारत है वह इस संविधान की पीठ पर है, किसी बाघ, शेर की पीठ पर नहीं। वह भारत माता नहीं है, सबकी सहमति से निर्मित भारत है जो हमारे बल पर है और उसके बल पर हम हैं। कुछ-कुछ बूंद ओैर समुद्रवाला रिश्ता है हमारा। बूंद जैसे ही समुद्र से बाहर होता है मिट जाता है। हम भारत से अलग होंगे मिट जाएंगे।
प्रधानमंत्री जी, लेकिन इस भारत भक्ति को कुछ लोंगो ने खिलवाड़ बना दिया है। न वह संस्कृति को समझते हें न राजनीति को। कुल मिलाकर उनकी दिलचस्पी एक फरेब विकसित करने में होती है जिसके बूते वे अपना वर्चस्व बनाये रखें। पुराने जमाने में कई तरह के सामाजिक-सांस्कृतिक फरेब विकसित कर इन लोगों ने अपना वर्चस्व बनाए रखा, वर्तमान संविधान ने इनके हाथ बांध दिये तब ये नये तरीके ढूंढ रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कभी अपने बैठकखानों में शेर की खाल लटकाने वाले इन महाप्रभुओं ने आज अपने ड्राइंग रूम में भारत माता की खाल लटका ली है और राष्ट्र के स्वयंभू पुरोहित बन देशभक्ति का प्रमाण पत्र बांट रहे हैं। ये लोग संविधान की जगह मनुस्मृति और शरीयत संहिताओं पर यकीन करते हैं। इनका भारत साधुओं, फकीरों और पाखंडियों का लिजलिजा भारत है जिसमें इनके मनुवाद पर कोई आंच नहीं आती। यही इनका देश है, यही इनका राष्ट्र है।
जवाहरलाल नेहरू वि.वि. की एक घटना पूरे देश की ऐसी घटना बन गई है जिसपर हर जगह चर्चा हो रही है। मैं तो उन लोगों में हूं जो इसे सकारात्मक रूप से ही देखते हैं और समझता हूं इस बहस से हमारा मुल्क और मजबूत बनेगा। लेकिन आप से अनुरोध है कि पूरे मामले पर नजर रखें ओैर उन ताकतों को हतोत्साहित करें जो समाजिक प्रतिगामी हैं, क्योंकि उनका इरादा भारत को कमजोर करना है। आज दुनिया का कोई भी देश, कोई भी समाज पुरानी ओैर घिसी-पिटी सोच के बूते आगे नहीं बढ़ सकता। गति तो पीछे लौटने में भी होती है यही तो प्रतिगामिता है। हमेे तय करना होगा कि हमे आगे बढऩा है या पीछे लौटना है। धर्मांधता और संकीर्णता के बूते हम आगे नहीं बढ़ सकते। इस सदी में हमें आगे बढऩा है तो विज्ञान द्वारा उपलब्ध कराये गए ज्ञान और सोच का ही सहारा लेना पड़ेगा। ग्लोबल हो रही दुनिया में हमारी सार्वजनिक चुनौतियां गंभीर होती जा रही है। हमनें बड़ी छलांग नहीं लगाई तो हम पिछडऩे के लिए अभिशप्त हो जाएंगे। एक बार पिछड़ गए तो फिर कहीं के नहीं रहेंगेे।
इसीलिए आप स्वयं अपना परिमार्जन कीजिए। आप और आप के लोग बार-बार राष्ट्रवाद की बात करते हैं। कभी सोचा है कि यह है क्या? एक पत्र में विस्तार से स्पष्ट करना संभव नहीं होगा लेकिन इतना बताना चाहूंगा कि देश किन विशेष परिस्थितियों में राष्ट्र बनता है। पश्चिम में राष्ट्रों का निर्माण और विकास जिन स्थितियों में हुआ उससे हमारे देश की स्थिति कुछ भिन्न थी। लेकिन दोनों जगहों पर यह आधुनिक जमाने की परिघटना है। औद्योगिक क्रांति के साथ यह पनपा और अपने कारणों से पूंजीवादी जमाने में विकसित हुआ। पश्चिम में जब राष्ट्र बन रहे थे तब एक निश्चित भूभाग संप्रभुता, आबादी और भाषा के साथ जो सबसे प्रमुख तत्व इसमें नत्थी था वह था इसके निवासियों का सामूहिक स्वार्थ। इसी सामूहिक स्वार्थ की व्याख्या हमारा संविधान अवसर की समानता के रूप में करता है।
लेकिन पश्चिम का राष्ट्रवाद एक स्थिति में आकर भयावह हो गया और आज वहां उसकी कोई चर्चा भी नहीं करना चाहता। इस राष्ट्रवाद की तख्ती लेकर यूरोप ने दो-दो विश्वयुद्ध किये और तबाह हो गए। कुल मिलाकर यह राष्ट्रवाद एक ऐसा भयावह देवता साबित हुआ जिसने मानव समाज की सबसे ज्यादा बलि ली। इसी परिप्रेक्ष्य में हमारे महान कवि और चिंतक रवींद्रनाथ टैगोर ने इसकी तीखी आलोचना की। 14 अप्रैल, 1941 को, यानी मृत्यु के कुछ ही समय पूर्व कवि ने 'सभ्यता का संकट’शीर्षक से एक लेख लिखा और व्याख्यान दिया। प्रधानमंत्री जी, आपको समय निकालकर वह लेख पढऩा चाहिए।
भारत में औद्योगिक क्रांति नहीं हुई और पंूजीवाद भी सामंतवाद के रक्त मांस मज्जा के साथ विकसित हुआ। इसलिए यहां पश्चिम की तरह का नहीं एक अजूबे किस्म का राष्ट्रवाद विकसित हुआ। इसका राजनीतिक पक्ष उपनिवेशवाद के खिलाफ रहा तो सामाजिक पक्ष पुरोहितवाद के खिलाफ। दोनों स्थितियों में मुक्ति की कामना इसका अभीष्ट रहा। इसके निर्माण में एक तरफ तिलक, गांधी और सुभाष, भगत सिंह की कोशिशें थीं तो दूसरी ओर ज्योतिबा फुले, रानाडे, आंबेडकर जैसे लोग सक्रिय थे। उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद सामाजिक आर्थिक वर्चस्व से मुक्ति की कामना ही अधिक प्रासंगिक हो गया। जवाहरलाल नेहरू ने सच्चे राष्ट्रनायक की तरह नये भारत की रूप-रेखा बनाई और उसमें प्रतिगामी सोच के लिए कोई जगह नहीं रखी। नये भारत के निर्माण के लिए उन्होंने साधू-संन्यासियों की जगह वैज्ञानिकों, मजदूरों और किसानों का आह्वान किया। देश में वैज्ञानिक चेतना विकसित करने पर जोर दिया।
लेकिन प्रधानमंत्री जी, आप राष्ट्रवाद की इस धारा की बात नहीं करते। आप का राष्ट्रवाद शिवाजी, सावरकर और गोलवलकर का रहा है जो हमेशा विवादों में रहा है। सावरकर, गोलवलकर का राष्ट्रवाद भारतीय नहीं हिंदू है। इसके लिए हमेशा एक अवलंब राष्ट्र चाहिए जैसे कोई दूसरा धार्मिक राष्ट्र। शिवाजी के वक्त उनका जो हिंदवी राज्य था वह मुगल राज के सापेक्ष था और सावरकर का हिंदुत्व इस्लाम के सापेक्ष। हेडगेवार गोलवलकर का हिंदू राष्ट्रवाद भी मुस्लि या इसाई राष्ट्रवाद के सापेक्ष ही संभव होगा। लेकिन भारतीय राष्ट्र की विशेषता इसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है जिसमें अवसर की समानाता विकसित करने की अकूत क्षमता है।
जहां तक मैंने समझा है जवाहरलाल नेहरू वि.वि. इस राष्ट्रवाद की सबसे खूबसूरत पाठशाला है। वहां कभी-कभार जाता रहा हूं और मैंने अनुभव किया है कि जैसे भयमुक्त भारत की कामना कवि टैगोर ने की थी वैसा ही भारत वहां के ज्यादातर छात्र गढऩा चाहते हैं। सच है कि वहां माक्र्सवादियों का गढ़ था और एक हद तक अभी भी है। मनुवादियों ने माक्र्सवादियों को तो बखूबी बर्दाश्त किया लेकिन इधर परेशानी होने लगी जब वहां नए छात्र फूले आंबेडकरवाद बांचने लगे और माक्र्सवादियों ने पहली दफा उनसे हाथ मिलाया। पहली घटना तो महिषासुर प्रसंग को लेकर हुई। मनुवादी छात्र वहां दुर्गा की पूजा करने लगे थे। फूले आंबेडकरवादी छात्रों ने महिषासुर दिवस का आयोजन किया। दुर्गा और महिषासुर इतिहास के हिस्से नहीं है हमारी पौराणिकता के हैं, और प्रधानमंत्री जी, केवल वर्चस्व प्राप्त तबकों का ही इतिहास नही होता केवल उन्हीं की पौराणिकता, केवल उनहीं की संस्कृति नहीं होती। शासित तबकों का भी, तथाकथित 'नीच’लोगों का भी - जो चुनाव के वक्त आप भी बन गए थे - एक इतिहास होता है, उनकी पौराणिकता भी होती है। वर्चस्व प्राप्त तबकों की पौराणिकता में दुर्गा हैं तो दलित, पिछड़े तबकों की पौराणिकता में महिषासुर। आपने देवासुर संग्राम के बारे में सुना होगा। वर्चस्व प्राप्त लोग अपनी पौराणिकता के बहाने अपने वर्चस्व को धार देते हैं, समाज के पीछे रह गए लोग अपनी पौराणिकता की नई व्याख्या कर सांस्कृतिक प्रतिकार-प्रतिरोध करते हैं। वर्चस्व प्राप्त लोग राम की पूजा करने के लिए कहते हैं हमें अपने शंबूक की याद आती है जिसकी गर्दन राम ने केवल इसलिए काट दी थी कि वह ज्ञान हासिल करना चाहता था। आपने कभी सोचा है कि एक दलित पिछड़े वर्ग से आये खिलाड़ी को कभी अर्जुन पुुरस्कार मिलेगा तब उसे कैसा लगेगा। उसके मन में अपने एकलव्य की याद क्या नहीं आएगी?
आप जरा कलेजे पर हाथ रखकर सोचिए प्रधानमंत्री जी, कि महिषासुर, शंबूक और एकलव्य कौन थे? वे विदेशी थे या विधर्मी? उनकी चर्चा करना, उनको रेखांकित करना आपको राष्ट्रद्रोही कदम लगता है। अब अपने संघ के लोगों को कहिये कि वे अपने हिंदुत्व पर पुनर्विचार करें। उनका भारत तो अखंड भारत नहीं ही है उनका हिंदुत्व भी अखंड नहीं है। खंडित हिंदुत्व है उनका, ब्राह्मण-हिंदुत्व है। आपके लोग इसी हिंदुत्व की बात करते हैं।
हम जे.एन.यू की ओर एक बार फिर चलें। 9 फरवरी, 2016 की घटना थी। यदि किसी छात्र ने देश विरोधी नारे लगाये हैं तो यह गलत है। जैसा कि मुझे बताया गया है कि भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने जैसे जुमले बोले गए। मैं इसकी तीखी भत्र्सना करना चाहूंगा। किसी की बर्बादी की बात हमें नहीं करनी चाहिए। पाकिस्तान की भी नहीं। वह हमारा पड़ोसी है, फले-फूले। दुनिया के तमाम देश फलेें-फूलें। आपका एक नारा मुझे सचमुच पसंद है सबका साथ, सबका विकास। लेकिन यह जमीन पर तो उतरे।
प्रधानमंत्री जी, वि.वि. इसी के लिए तो बनते हैं। वहां अनेक देशों के लोग पढ़ते हैं। पुराने जमाने में जब हमारे यहां नालंदा था चीन के ह्वेनसांग और फाहियान वहां पढऩे आये थे। ब्रिटिश काल में भी हमारे लोग ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जाते थे। आपको पता होगा भारतीय छात्र वहां भारत की आजादी पर भी चर्चा करते थे। उनका संगठन था। उनकी कार्यवाही थी लेकिन ब्रिटेन के लोगों ने इसके लिए उनपर देशद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया। आपके सावरकर भी वहां पढऩे गए थे और अपनी प्रसिद्ध किताब 'इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस: 1857’उन्होंने ब्रिटेन में रहकर पूरी की। वहीं उन्होंने 'फ्री इंडिया सोसायटी’की स्थापना की। हमें भी अपनी यूनिवर्सिटियों को इतनी आजादी देनी चाहिए कि वहां लोग मुक्त मन से विचार कर सकें। विश्वविद्यालय में जो जो विश्व शब्द है उस पर ध्यान दीजिये। आप उसे संघ का शिशुमंदिर बनाना चाहते हैं? यूनिवर्सिटियां मानव जाति पर समग्रता से विचार करती हैं, उसे देशभक्ति की पाठशाला मत बनाइए। हममें तो अभी वि.वि. पालने का शउर ही विकसित नहीं हुआ है। मान लीजिये जे.एन.यू में सौ-दो सौ पाकिस्तानी छात्र पढ़ते तो वह पाकिस्तान की बात नहीं करेंगे। विदेशों में हमारे छात्र पढ़ते हैं तो अपने भारत की बात नहीं करते हैं?
थोड़ी बात काश्मीर मुद्दे पर भी कर लेें। अफजल गुरु पर कतिपय छात्रों ने चर्चा की। इसके लिए इतना कोहराम मचाकर हमने केवल कश्मीरी समस्या को रेखांकित ही किया है। यह हमारा मूर्खतापूर्ण कदम कहा जाएगा। कश्मीर की समस्या पूरे भारत की समस्या से कुछ अलग और जटिल है। आपने वहां उस पी.डी.पी. के साथ सरकार बनाई, जो अफजल को शहीद मानता है। आपका कदम सही है। सरकार बनाकर आपने संवाद बनाने की कोशिश की है। संवाद बनाकर ही बातें आगे बढ़ती है, बढऩी चाहिए यही तरीका है। पाकिस्तान की बार-बार की हरकतों के बावजूद हम उससे संवाद बनाने की कोशिश करते हैं काश्मीर तो अपना है। और मैं समझता हूं कि काश्मीर के मसले को आप मुझसे बेहतर समझते हैं क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार आप कुछ समय तक वहां रहे हैं। काश्मीर की समस्या थोड़ा पेचीदा है, वह ब्रिटिश भारत का हिस्सा नहीं था, अलग रियासत था। वह एक खास परिस्थिति में भारत से जुड़ा, जो स्वाभाविक था। इस तरह उसकी स्थिति कुछ वैसी है जैसा किसी परिवार में गोद लिए बच्चे की होती है इसलिए हमारे संविधान में वहां के लिए एक विशेष धारा है। ऐसी धाराओं का सम्मान होना चाहिए। ऐसी ही धाराओं की बदौलत भविष्य में कभी अन्य देश भी भारतीय संघ में जुड़ सकते हैं। इसमें पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल भी हो सकता है। हमें सपने देखने नहीं छोडऩे चाहिए। सपने कभी सच भी होते हैं।
तो प्यारे प्रधानमंत्री जी, नाराज नागरिकों, खासकर युवाओं से संवाद विकसित करना चाहिए, तकरार नहीं। दंड देकर, जबर्दस्ती देशभक्ति नहीं थोपी जा सकती। मुझे उन नाराज नौजवानों से अधिक खतरा आपके उन भक्तों से है जो राष्ट्रवाद की ताबीज-कंठी लटकाकर देश को लूट रहे हैं। कभी आपने अपने मित्र बड़े अंबानी से नहीं पूछा कि भाई जिस देश में किसान, छोटे-छोटे कर्जांे को लेकर आत्महत्या कर रहे हैं, वहां तुम हजार करोड़ का अपना घर क्यों बना रह हो? आपने पूंजीपतियों के लिए लाखों करोड़ के कर्ज माफी की घोसना की है लेकिन भारत के किसानों-मजदूरों की चिंता आपको नहीं है। हैदराबाद वि.वि. का एक होनहार छात्र रोहित वेमुला आत्महत्या करने पर मजबूर हुआ। आपको इसपर रोना भी आया। आपको समझ सकता हू। आप ही के शब्दोंमें आप नीच जात हो, पिछड़ी जमात के आदमी हो, माक्र्सवादी शब्दावली के सर्वहारा हो आप, बचपन में चाय बेचने वाले, दूसरों के घर मजदूरी करनेवाली महान मां के बेटे। आप पर कुछ भरोसा है। आपसे संवाद करने से बात बन सकती है। कुछ समय पहले आंबेडकर की मूरत पर जब आप माला चढ़ा रहे थेे तब मेरे मन में ख्याल आया था कि काश उनके विचारों की माला अपने गले में डाल लेते। एक मौन क्रांति हो जाती। इसीलिए विवेकानंद के शब्द उधार लेकर कहना चाहूंगा कि उठो, जागो और रूको नहीं। तुम्हारे संस्कार संघ के संस्कार नहीं हैं, तुम मनुवादियों के घेरे से विद्रोह करो, उन्हें ध्वस्त करो। उनका देश झूठा है, रास्ट झूठा है, धर्म झूठा है। आप झूठ के लाक्षागृह से निकल जाओ मोदी जी। आपका तो कम, राष्ट्र का ज्यादा भला होगा।
सादर,
आपका
प्रेमकुमार मणि
↧
↧
Article 0
चुनौतियों से घिरे अखिलेश
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अगले हफ्ते अपने कार्यकाल का चार वर्ष पूरा कर लेंगे। उन्होंने 2012 में तेज-तर्रार युवा नेता के रूप में अपनी पारी शुरू की थी, मगर आज वह अपनी ही छाया बनकर रह गए हैं। हाल ही में समाजवादी पार्टी के एक असंतुष्ट नेता ने उन्हें उत्तर प्रदेश के इतिहास का सबसे अक्षम मुख्यमंत्री करार दिया! संभव है कि ऐसा उन्होंने निजी खुन्नस के चलते कहा हो। मगर इसमें संदेह नहीं कि समाजवादी पार्टी के साथ ही प्रदेश के लोगों का इस युवा नेता से मोहभंग हुआ है, जिसमें वे लोग कभी काफी संभावना देख रहे थे।
अखिलेश यादव की सबसे बड़ी नाकामी उनकी अपनी पार्टी के भीतर ही उनका अधिकारसंपन्न नहीं होना है। चार वर्ष पहले जब उन्होंने मुख्यमंत्री का पद संभाला था, उसकी तुलना में आज पार्टी गुटों में विभाजित और दिशाहीन दिख रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि उनके पिता और चाचाओं के साथ ही आजम खान जैसे सपा के दिग्गजों ने मुख्यमंत्री को स्वायत्तता के साथ काम करने ही नहीं दिया, ताकि वह सरकार को दूरदर्शिता के साथ चला सकें। पिछले कुछ वर्षों में देखा गया कि जब-जब उन्होंने कोई नई पहल शुरू करने की कोशिश की, यादव खानदान के वरिष्ठजनों द्वारा बार-बार उन्हें नजरंदाज कर दिया गया या झिड़क दिया गया। कुछ महीने पहले हुआ यह वाकया उनकी स्थिति को बयां करने के लिए काफी है, जब अखिलेश के दो करीबियों-आनंद भदोरिया और सुनील सिंह को उनके चाचा ने पार्टी से निलंबित कर दिया था। इससे मुख्यमंत्री नाराज हो गए और उन्होंने यादव परिवार के गृहनगर सैफई में होने वाले वार्षिक महोत्सव में जाने से इन्कार कर दिया था, और वह तभी माने जब उनके पिता ने हस्तक्षेप कर उन दोनों का निलंबन वापस करवाया।
मुख्यमंत्री को यादव परिवार के सदस्यों के बोझ से उबरने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। परिवार के कम से कम 19 सदस्य सत्ता के निर्वाचित पदों पर या राज्य के प्राधिकरणों में हैं या फिर केंद्रीय स्तर पर कोई न कोई पद संभाल रहे हैं। इस तरह देखा जाए, तो आज मुलायम सिंह यादव का परिवार देश का सबसे बड़ा राजनीतिक खानदान है। परिवार के भीतर की राजनीति और सपा के शासन के दौरान पूरे उत्तर प्रदेश में कुकुरमुत्तों की तरह उभर आए सत्ता केंद्रों ने सरकार चलाने के काम को कठिन बना दिया है। सूबे के सियासत पर नजर रखने वाले एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक की टिप्पणी थी, 'युवा नेता ने शुरू में तो काफी कोशिश की, मगर वह जिस राजनीतिक वाहन पर सवार हैं, वह अब उनके नियंत्रण से बाहर हो गया है और उनसे इसकी स्टेयरिंग संभल नहीं रही है।'
स्पष्ट तौर पर कहा जा सकता है कि कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति अखिलेश यादव की सबसे बड़ी नाकामी है, जिसके कारण उनकी पकड़ कमजोर हुई। सपा के उद्दंड कार्यकर्ताओं ने 2012 में विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिली जीत के जश्न में ही निर्दोष लोगों को निशाना बनाया था! हाल ही में पार्टी के एक विधायक के भाई ने सड़क पर झगड़ा किया, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई। सूबे के ग्रामीण इलाकों में मोटरसाइकिलों और बड़ी गाड़ियों में दंबगों को देखा जा सकता है, जिनकी वजह से निचली जाति वाले, अल्पसंख्यक और महिलाएं शायद ही इतना असुरक्षित महसूस करती हैं। बची-खुची कसर हिंदू कट्टरपंथी गुटों के आक्रामक अभियानों ने कर दी, जिन्हें संघ परिवार के एक गुट का संरक्षण हासिल है। इससे उपजे सांप्रदायिक तनाव ने अखिलेश यादव के प्रशासन को पूरी तरह से बैकफुट पर ला दिया। कहीं-कहीं ऐसी खबरें भी आई हैं कि सांप्रदायिक तनाव की इन घटनाओं को भड़काने में सपा के लोगों का भी हाथ रहा है। दुर्भाग्य से राज्य सरकार अल्पसंख्यक समुदाय में बढ़ती असुरक्षा से बेखबर दिखती है। बल्कि मुजफ्फरनगर के दंगों की जांच करने वाले न्यायिक जांच आयोग ने तो सरकार को क्लीन चिट दे दी है।
कानून-व्यवस्था की बदहाली के अलावा अखिलेश यादव सरकार पर किसानों की हताशा बढ़ाने का भी आरोप है, क्योंकि सूखा प्रभावित जिलों में उसकी ओर से कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए गए। पारंपरिक रूप से पिछड़े बुंदलेखंड क्षेत्र की स्थिति और बदतर हो गई है, जिसकी वजह से वहां के किसानों की आत्महत्या की खबरें आई हैं। इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादक किसान भी परेशान हैं, जबकि पहले इस क्षेत्र को संपन्नता का प्रतीक माना जाता था। गन्ने के दाम पिछले कई वर्षों से नहीं बढ़ाए गए हैं, जिससे किसानों की नाराजगी बढ़ गई है। दिलचस्प यह है कि भारतीय किसान यूनियन और भारतीय किसान आंदोलन जैसे संगठन बसपा सुप्रीमो मायावती की पिछली सरकार को याद कर रहे हैं, जब हर वर्ष गन्ने के दाम में बढ़ोतरी की जा रही थी और चीनी मिलें व्यवस्थित ढंग से काम कर रही थीं।
अब जबकि उत्तर प्रदेश विधानसभा के महत्वपूर्ण चुनाव को सिर्फ एक वर्ष रह गए हैं, मुख्यमंत्री अखिलेश और उनकी पार्टी के सामने दोहरी चुनौती है। एक ओर मायावती के उभरने की चुनौती है, जो लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिली अपमानजनक पराजय का बदला लेना चाहती हैं, तो दूसरी ओर आक्रमक तरीके से भाजपा किसी भी तरह यह चुनाव जीतना चाहती है, क्योंकि इनसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। एक-एक दिन बीतने के साथ ही यह स्पष्ट होता जा रहा है कि सपा अखिलेश यादव के प्रशासनिक रिकॉर्ड पर बहुत निर्भर नहीं है। बल्कि इसके बजाय अटकलें तो यह हैं कि वह भाजपा के साथ किसी तरह का तालमेल कर सकती है, ताकि ध्रुवीकरण होने से दोनों को लाभ हो। मगर इसमें एक बड़ा खतरा यह है कि इससे मुख्यमंत्री की छवि को और नुकसान होगा।
वरिष्ठ पत्रकार एवं बहनजी-ए पॉलिटिकल बायोग्राफी के लेखक
-----------------------------------------------------------------------------------
व-तर्ज ए अवाम !
इसके साथ उत्तर प्रदेश की अवाम भी कुछ सोचती है जनाब !
परिवार की पहचान और घमासान का जो परिदृश्य नेताजी ने पैदा कर दिया है वह वास्तव में समाजवादी राजनीती का नहीं पारिवारिक राजनीती का मुखौटा है, मौजूदा मुख्यमंत्री के चयन में जो स्थितियां परिस्थितियां थीं कमोवेश वही स्थितियां आज भी हैं, बल्कि ठीक से देखा जाय तो वह उस परिवार की सियासी जंग की तरह मौजूद ही नहीं हैं गहरी साजिशों के मकड़जाल से घिरी हुयी हैं, वर्चस्व की लड़ाई में प्रदेश कहीं और छूट रहा है जबकि आपसी खीच में कार्यकर्ताओं की बहुत ही दयनीय स्थिति हो गयी है, सत्ता के गलियारों में जहाँ इस परिवार के बहुतेरे सदस्यों का मूल्याङ्कन होता है उसमें अलग अलग मोहरे अलग अलग तरह से चिन्हित होते हैं या हो रहे हैं ? जबकि यह वह दौर है जब पार्टी को सशक्त, समृद्ध और मज़बूत नेतृत्व का आधार लेकर उभारना चाहिए था ? लेकिन हुआ इसके उलट है, इस बीच के विभिन्न चुनाओं में पार्टी की सफलता को लोकप्रियता से देखा जाना दिवा स्वप्न देखने जैसा है !
↧
*ब्राह्मण जज पर रोक*
यद्यपि यह लिखते हुए नहीं इस पोस्ट पर लगाते हुए मुझे अपने मित्रों से बहुत अलग तरह की प्रतिक्रिया की अपेक्षा है पर यह प्रतीत होता है कि अंग्रेजों में भारत के लिए कितनी समझ रही होगी कि वह ऐसे कानून बनाए और बहुतेरे कानून आज तक उनके बनाए हुए विभिन्न महकमों में चल रहे हैं विशेष करके शिक्षा के क्षेत्र में तो भले ही पर्याप्त मात्रा में रोके गए हो पर जितने भी लोग शिक्षित हो पाए हैं कही न कही अंग्रेजी शिक्षा का ही योगदान है अन्यथा गुरुकुलों की जो दशा है एकलव्य जैसे महान पुरोधाओं को किस तरह से उन्होंने अपमानित किया और अंगूठा तक काट कर मांग लिया यह कहां का न्याय है इन सब को चलते हुए यह तो मानना ही पड़ेगा अंग्रेजो ने इनके बारे में सही राय रखी होगी तभी तो:
*ब्राह्मण जज पर रोक*









*कलकत्ता हाईकोर्ट में ब्रिटिश काल में प्रीवी काउन्सिल हुआ करती थी। अंग्रेजों ने नियम बनाया था कि कोई भी ब्राह्मण प्रीवी काउन्सिल का चेयरमैन नहीं बन सकता। क्यों नहीं हो सकता? अंग्रेजों ने लिखा है कि ब्राह्मणों के पास न्यायिक चरित्र नहीं होता है। न्यायिक चरित्र का मतलब है निष्पक्षता का भाव। अर्थात निष्पक्ष रहकर जब एक न्यायाधीश दोनों पक्षों की दलीलें सुनता है, सभी दस्तावेजों को देख कर कानून और न्याय के सिद्धान्त के अनुसार अपनी मनमानी न करते हुए जो सही है उसे न्याय दे, उसे न्यायिक चरित्र कहते है। ऐसा न्यायिक चरित्र ब्राह्मणों में नहीं है, यह अंग्रेजों का कहना था। आज की तारीख में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के लगभग 600 न्यायाधीश हैं, उनमें 582 न्यायाधिशों की सीटें ब्राह्मण तथा ऊँची जाति के लोगों के कब्जे में हैं। जब तक न्यायपालिका को प्रतिनिधिक नहीं बनाया जाता, तब तक हमें न्याय मिलने वाला नहीं है। इसलिए न्यायपालिका को प्रतिनिधिक बनाने की आवश्यकता है।*
*भारत की न्यायपालिका पर हिन्दुओ का नहीं बल्कि ब्राह्मणों का कब्जा है, और ब्रिटिश लोग कहते थे कि, *"BRAHMINS DON'T HAVE A JUDICIAL CHARACTER"*. *यानी "ब्राह्मण का चरित्र न्यायिक नहीं होता, वो हर फैसला अपने जातिवादी हितों को ध्यान मे रखकर देता है।*
*सुप्रीम कोर्ट में बैठे ब्राह्मण जज हर फैसला OBC, SC, ST, मुसलमान, सिख, ईसाई और बौद्धों के खिलाफ ही देते है..*
*न्यायाधिशों की नियुक्ति में कोलिजियम का सिद्धान्त दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देशों में नहीं है, वह केवल मात्र भारत वर्ष में ही है। इसका कारण यह है कि अल्पमत वाले ब्राह्मण लोग बहुमत वाले बहुजन लोगों पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहते हैं। जो बहुमत है वह अपने हक-अधिकारों के प्रति धीरे-धीरे जागृत हो रहा है, इससे ब्राह्मणों के लिए संकट खड़ा हो रहा है। इस संकट से बचने के लिए न्यायपालिका मे बेठे ब्राह्मण न्यायपालिका का इस्तेमाल एससी एसटी ओबीसी और अल्पसंख्यक के विरुद्ध कर रहे है।*
*भारतीय हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट मे 80% जज ब्राह्मण जाति से है, और ब्राह्मण कभी न्याय का पर्याय नहीं हो सकता क्योंकि ये उसके DNA मे ही नहीं.....*
निवेदक:-
*ओबीसी ललित कुमार*
*(राष्ट्रीय अध्यक्ष)*
*अभा.ओबीसी महासभा*









*कम से कम 5 लोगो को शेयर करें*
↧
सांस्कृतिक बदलाव और सामाजिक न्याय
सांस्कृतिक बदलाव और सामाजिक न्याय :
हज़ारों वर्षों से भारत जिनसे मुक्त नहीं हो पा रहा है ?
(मनु स्मृति अगर आपको लग रहा है की संसद में जो नाटकीय रोल आप अदा कर रही हो, वह किसी देश की शिक्षामंत्री का नहीं, निहायत वेवकूफ घमंडी "बहु"का तो हो सकता है वास्तव में आप हो तो नाटक या सीरियल वाली ही न ! जिस तरह से महिषसुर प्रकरण पर आप आप अपना बयांन दे रही हो, संयोग से आपको जबाब नहीं दिया जा सका तो इसका यह मतलब नहीं की आप स्वयं "दुर्गा"हो गयीं ! सेक्स वोर्केर(वेश्याएं) हिंदुस्तान की सच्चाई है, पौराणिक काल की और झाँकेंकेंगी तो स्त्रियों की और बुरी हालत इन मनुवादियों ने प्रस्तुत की है विष कन्याएं (विष पुरुष) का संदर्भ कहीं नहीं आता है ! महिषासुर आपको समझ नहीं आएगा क्योंकि आपको दलित,पिछड़ा पुरुष पुरुष नहीं दीखता, स्मृति जी आप उसी दलित, पिछड़े, कुरूप चायवाले प्रधानमंत्री की कैबिनेट की मंत्री हैं जिसके खिलाफ आप पहले भी बोल चुकी हैं, आप आइये अमेठी आपको पता चल जाएगा की महिषासुर असुर है या सुर या किसान का बहादुर नेता, उसके राज्य में भी मनुवादी आहत थे तब जिस वेश्या ने उसके साथ विश्वासघात किया हो (था थीं) उसे आप "दुर्गा"कहकर पूज्यनीय बनाती हैं, वह इन्हे कैसे पूज्य बना सकती या सकता हैं जिसके कुल का वह राजा रहा हो !
परम्पराओं के पाखण्ड ने हज़ारों सूरमाओं को नस्नाबूत किया है आप जैसी अपढ़ मंत्री जो उस मास्टरनी सी भी नहीं दिखती जो आजकल स्कूलों में केवल स्वेटर बनाने जाती है, आप जवाहर लाल विश्वविद्यालय को सचमुच "सास कभी बहु थी"से आगे ले जाने की नहीं सोच सकती हो !)
हज़ारों वर्षों से भारत जिनसे मुक्त नहीं हो पा रहा है ?
(मनु स्मृति अगर आपको लग रहा है की संसद में जो नाटकीय रोल आप अदा कर रही हो, वह किसी देश की शिक्षामंत्री का नहीं, निहायत वेवकूफ घमंडी "बहु"का तो हो सकता है वास्तव में आप हो तो नाटक या सीरियल वाली ही न ! जिस तरह से महिषसुर प्रकरण पर आप आप अपना बयांन दे रही हो, संयोग से आपको जबाब नहीं दिया जा सका तो इसका यह मतलब नहीं की आप स्वयं "दुर्गा"हो गयीं ! सेक्स वोर्केर(वेश्याएं) हिंदुस्तान की सच्चाई है, पौराणिक काल की और झाँकेंकेंगी तो स्त्रियों की और बुरी हालत इन मनुवादियों ने प्रस्तुत की है विष कन्याएं (विष पुरुष) का संदर्भ कहीं नहीं आता है ! महिषासुर आपको समझ नहीं आएगा क्योंकि आपको दलित,पिछड़ा पुरुष पुरुष नहीं दीखता, स्मृति जी आप उसी दलित, पिछड़े, कुरूप चायवाले प्रधानमंत्री की कैबिनेट की मंत्री हैं जिसके खिलाफ आप पहले भी बोल चुकी हैं, आप आइये अमेठी आपको पता चल जाएगा की महिषासुर असुर है या सुर या किसान का बहादुर नेता, उसके राज्य में भी मनुवादी आहत थे तब जिस वेश्या ने उसके साथ विश्वासघात किया हो (था थीं) उसे आप "दुर्गा"कहकर पूज्यनीय बनाती हैं, वह इन्हे कैसे पूज्य बना सकती या सकता हैं जिसके कुल का वह राजा रहा हो !
ताकि सनद रहे !
इस बात को तो गारंटी से कह सकता हूँ की अखिलेश जी को "ब्राह्मणवाद"चट गया है ? मुसलमान का वोट बचाने के चक्कर में गठबंधन की मलाई कांग्रेस ले गई और इनके लोग रह गए खाली समाजवादी ?
यह बात तो सही होने जा रही है जिसने भी लिखा है कि "मंडल साहब चिंता इस बात की है जब मालूम था कि भाजपा ध्रुवीकरण पर ही उतरेगा तो उससे निपटने की तैयारी क्यों नही की गयी। अब तो "स्टीव जार्डिंग"और "पीके"दोनो की टीम करोड़ों लेकर काम कर रही है।
क्या काम किया इनने।
गैर यादव ओबीसी बुरी तरह से सांप्रदायिक कर दिया गया है।
बसपा की बुरी हालात हो रही है।"
और लगभग गैर जाटव / चमार भी सांप्रदायिक हो गया है।
आपको याद् है कभी मुलायम सिंह यादव या कांशीराम ने इस तरह की एजेंसियों का सहयोग चुनाव के लिए लिए थे ?
बुजुर्गों का कहना है "ये लौंडे हैं दो के दोनों "इन्हें हर बात में विज्ञापन नज़र आता है, इन्हें कौन बताये यह हिंदुस्तान है। कांग्रेस की बात अलग है वह तो हमेशा इस तरह के प्रयोग करती रही है राजीव गांधी को बड़ी-बड़ी एजेंसीयों चुनाव प्रचार में सहयोग करती थी और जिनके चलते कांग्रेस जमीन से ही उखड़ गई है यह बात अखिलेश जी को किसी ने नहीं बताया ऐसा मुझे प्रतीत होता है क्योंकि ब्राह्मण विरोध की राजनीति प्रचार एजेंसीयों से नहीं हुआ करती क्योंकि दुनिया भर की प्रचार एजेंसीयों ब्राह्मणवाद की संवाहक हैं और यह ब्राह्मणों के लिए ही ज्यादा मुफीद होती हैं।
यहाँ यह कहना उचित होगा कि अभी उत्तर प्रदेश और बिहार में मामूली अंतर नहीं है "पीकेयूआ"नितीश को तो उल्लूएय बना देता लालू जी का भला हो बचा लिए और ससुरा बड़का इन्तज़ामकर होईगवा है, और ई यूपी में बेचारा फस गया है ? अब यहाँ कौनो न तो लालू है और न नितीश ?
भाई शिवपाल जी के बारे में कहा जा रहा की उन्हें हटाने में ऊपर वाली एजेंसीयों का बड़ा हाथ है काहे को कि उनके रहते हैं शायद इतना खेला ना हो पाता इसीलिए पहले उनको ही हटवाया अब ऐसी स्थिति में उनको भी बहन जी में ज्यादा विश्वास नज़र आ रहा है, क्योंकि जिस पी आर कंपनी ने उन्हें खाली करवा दिया उसका श्रेय है "स्टीव जार्डिंग"और "पीके"को ?
तो वह अब कुछ न कुछ तो करेंगे ही ? क्योंकि वे देशी तरीके के नेता हैं और नेता जी का बरदहस्त भी है उन पर ? वैसे न जाने कैसे ये बन जाते हैं सामन्त और इन्हें लगता है देश ही इनका है ? जब अमर सिंह जैसा व्यक्ति मिल गया हो तो यह महत्वाकांक्षा और बलवती हो जाती है कि असली सामन्त यही हैं
जहां तक कांग्रेस के साथ जाने का सवाल है आज तक तो उनसे कोई 'उबरा'नहीं है ? वास्तव में इनका गठजोड़ क्या डूबते को तिनके का सहारा वाली कहावत चरितार्थ तो नहीं करेगा ? क्योंकि डर लग रहा है इससे की जो ये कंपनियां हैं "स्टीव जार्डिंग"और "पीके"क्या पता बीजेपी के लिए भी काम न कर रही हों ? और इन्हें उल्लू बना रही हों ?
भाई सत्या सिंह के बहाने : आजकल बहुत सारे लोग अखिलेश जी के वफादार हो गए हैं और सरकारी एजेंसीयों के बजाए वही लोग मुख्यमंत्री और सरकार के बहुत सारे कामों का प्रचार कर रहे हैं ऐसे ही भाई सत्या सिंह हैं अभी हर जगह उनका लेखन पढ़ने को मिल जाता है और वह केवल सरकार के पाजिटिव पहलू पर ही नजर डालते हैं उसके नेगेटिव पहल उन्हें दिखाई नहीं देते मुझे लगा कि इन के बहाने सरकार के नेगेटिव पहलुओं को इन्हें बताया जाए।
भाई सत्या सिंह आप क्यों नहीं समझते हैं कि भारत जातियों का देश है और यहां जातीय आधार पर ही तमाम तरह की व्यवस्थाएं लागू हैं। जिनमें राजनीति एक अहम हिस्सा होकर जरूरी अंग है।
जब हम जात की बात कर रहे होते हैं तो अखिलेश उससे अछूते नहीं हैं किसने कहा अखिलेश यादव को कि वह जाति की बात ना करें ? जब कि जो लोग उनसे जितने लाभांवित हो रहे हैं उतना ही ज्यादा उन्हें यादव यादव कह कर प्रचारित करते हैं और यही कारण है कि आज उनके साथ अकेले यादव जाति ही खड़ी है और बाकी सारी उनकी जातियां अपना अपना काम करके (लूटपाट करके) चल बनी ? उनको भी यह पता था कि उनके लोग इन्हें वोट नहीं करेंगे इसीलिए जिसको जहां जाना था वहां चला गया है।
और आप अब छाती पीटते रहिये की अखिलेश जी ने जाती के आधार पर कुछ नहीं किया बल्कि सर्वजातीय बने रहे उनके इस प्रयास से कितना बदलाव हुआ है क्या कोई आंकड़ा है आपके पास ? इससे ना तो जातिवाद रुकने वाला है और न जातीय पहचान घटने वाली है ? क्या उन का प्रयास निरर्थक नहीं हुआ।
आश्चर्य होता है कि समाजवादी पार्टी ने जहाँ सारे मानदंडों को तोड़ते हुए पारिवारिक राजनीति में कदम रखा ? पिता ने अपने राजनीति के अनुभवहीन (समाजवादी राजनीती और सामजिक न्याय की अवधाराणा के सम्बन्ध में) पुत्र को प्रदेश की राजनीति का मुखिया बनाया ? जिसकी बार-बार प्रामाणिकता उन्होंने 5 वर्षों के शासन में वह स्वयं बीच-बीच में करते रहे हैं ! जिसको आप किसी भी तरह से भले देखें ? लेकिन नेता जी को इस बात का भान था कि उनका पुत्र उनकी बनाई हुई राजनीति को कहां ले जा रहा है इसको हम जिस रूप में भी देखें लेकिन नेताजी ने कई रूपों में देखा है। आपको याद होगा कि हमारे मुख्यमंत्री जी बिना असली चाचा के सरकार के आरंभिक दिनों में परेशान रहते थे और नाना प्रकार से अमर सिंह की याद उन्हें सताती रहती थी।
जब उनको अमर सिंह की असलियत पता चली तो फिर वह उनसे दूर होने का उपक्रम किए लेकिन इसका नुकसान यह हुआ कि उनका पूरा परिवार अमर सिंह के साथ चला गया और अपने अकेले बच गए ऐसा लगता है कि अमर का होना और ना होना कितना प्रभावी रहा यह हिसाब अलग से लगाना होगा क्योंकि अमर सिंह को यह अभिमान था कि उनके बगैर समाजवाद का कोई मायने नहीं होता और उन्होंने जो आदतें समाजवादियों में डाली वह इतिहास बन गई।
इस बात का तो हमलोगों को भी दिल ही दिल में बहुत खराब लगती थी की अमर सिंह जैसे व्यक्ति ने जमीन से जुड़े हुए लीडर को फाइव स्टार का शौकीन बना दिया था और पिछले पर में ही आम आदमी से उनका मिलना दूभर हो गया था और इस बात का बहुत दर्द पूरी अवाम को है !
एक ऐसा युवा जिसके सिंहासनारोहण के लिए उस समय फेसबुक पर हम भी लिख रहे थे और पूरी अपेक्षा थी कि पूरा समाज इसको बहुत ही बौद्धिक और वैचारिक तथा पौष्टिक तरीके से लेगा ? लेकिन हुआ क्या यह युवा 5 वर्षों तक सवर्णों के पीछे लगा रहा जैसे सत्ता उन्होंने ही इन्हें दी हो। जब की सच्चाई यह थी कि हाथी की मालकिन उसे अवाम नाराज थी उसे हटाना था इसलिए नेताजी को बहुमत मिला था और उन्होंने यह दायित्व अपने पुत्र को देकर पृष्ठभूमि में चले गए थे।
दूसरी और यह भी देखना है कि माननीय नेता जी स्वास्थ्य की दृष्टि से कितने भी उम्र के लिहाज से कमजोर या विक्षिप्त हो गए हैं। लेकिन पिता तो इन्हीं के हैं, चाचा तो इन्हीं के हैं, प्रोफेसर रामगोपाल यादव जी इन्हीं के हैं, पूरा परिवार इन्हीं का है, किस से अलग होकर यह जनता को संदेश दे रहे हैं ?
क्या यह सब उन विदेशी कंपनियों के कहने पर किया जा रहा है जो इनके भी लिए काम करती हैं, और इनके दुश्मनों के लिए भी काम करती हैं। स्वाभाविक है उनको जहां से ज्यादा पैसा मिलेगा उसके लिए ज्यादा काम करेंगे और उनके लू पोल अलग से बता भी देंगे ? दुनिया में सारी व्यापारी कंपनियां इसी तरह की होती हैं इनका कोई ईमान नहीं होता केवल और केवल उनका धर्म ही लाभ का होता है जिसके लिए वह काम करती हैं।
भारतीय लोग किसी एजेंसी के इशारे पर काम ना कर के अपने मन के मुताबिक काम करते हैं और समाज ऐसा है जो इमोशन पर भी काम करता है, और इन्होंने पुरे पिछड़ों का इमोशन, दलितों का इमोशन, केवल और केवल सवर्णों की खुशी के लिए कुर्बान कर दिया है।
इन्होंने सारे पुरस्कार केवल और केवल उन्ही लोगों को दिए हैं जो उसके पात्र ही नहीं थे। आज वोट का दौर है वह एक भी आदमी इन को वोट नहीं कर रहा है, जिसको इन्होंने लाभान्वित किया है और यह सम्मान पाने की न ही उसकी हैसियत थी। इन्होंने सब कुछ बांट दिया उनको जो इनके कभी नहीं हो सकते यही नहीं तमाम विश्वविद्यालयों के कुलपति प्राध्यापक केवल और केवल एक जाती जो हमेशा से धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार में लिप्त रही है जिसे ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है को दिया है आज वही इनकी सबसे ज्यादा विरोधी हैं और इन्हें भ्रम और वहकाने में कामयाब हुए हैं।
वे क्यों किसी का और प्रभावित करें मैं कई ऐसे लोगों को जानता हूं, जिन्होंने उनके शासन में जमकर के सत्ता का लाभ लिया है ? और मंत्री तक के पद तक संभाला है । कैईयों को तो इन्होंने इसी बीच निकाला है और कईयों को निकालने का मन बनाए होंगे पर आगे क्या करेंगे इसका कोई अंदाजा नहीं है। इन के बहुत सारे सलाहकार इन के हित के लिए नहीं अपने हित के लिए आगे पीछे लगे रहे जिससे सत्ता का लाभ तो लिया है। लेकिन सामाजिक रुप से राजनीतिक रुप से और भविष्य की राजनीति के लिए इन को कमजोर कर दिया गलत दिशा में डाल दिया इन्हीं सारी चीजों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आने वाले दिनों में किस तरह की राजनीति आगे आएगी उसकी पूर्व पीठिका इस बार का चुनाव तय करने जा रहा है।
यही तो पूंजीवादी सिस्टम चाहता था और इन्होंने यही किया है मुझे पूरा याद है कि कभी भी नेता जी ने किसी भी एजेंसी का सहारा ले कर के अपना चुनाव नहीं लड़ा था बल्कि जनता का विश्वास किया था और जनता ने उनका साथ दिया था जनता जानती थी कि उनका प्रतिनिधि कम से कम ईमानदार तो है ।
आज जिस विकास की बात करते आप थक नहीं रहे हो उस विकास से वर्तमान राजनीति का कोई लेना देना नहीं है मैंने पहले भी लिखा है यह विकास पर ही राजनीति होती तो शीला दीक्षित ने जितना विकास दिल्ली भी किया था उसके बाद जो चुनाव हुए थे उसमें वह स्वयं हार गई थी इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा क्योंकि विकास के लिए दिल्ली जैसा पढ़ा लिखा और वह दिल्ली जिस पर केवल और केवल पढ़ी-लिखी आवाम रहती हो उसमें शीला के साथ ऐसा व्यवहार किया हो मेरे मित्र मुझे यह जानकर सुनकर और जांच कर पता चल रहा है कि बहुजन राजनीति का सबसे बड़ा नुकसान इस समय होने जा रहा है ।
देश में इसका बड़ा नुकसान हो चुका है देश के सारे बहुजन नायक उस महान पार्टी के अंग हो चुके हैं जो केंद्र की सत्ता में विराजमान है जिसका उद्देश्य ही बहुजन समाज का शोषण और विनाश करना है आप अगर इससे कहीं से असहमत हो तो हमें जरूर बताएं हम आपका जवाब देने के लिए तत्पर होंगे।
डा.लाल रत्नाकर
साधुवाद
जय समाजवाद।
↧
↧
क्या मायावती का दलित वोट बैंक खिसका है?
क्या मायावती का दलित वोट बैंक खिसका है ?
-एस. आर. दारापुरी,
राष्ट्रीय प्रवक्ता,
आल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
पिछले लोक सभा चुनाव के परिणामों पर मायावती ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि उन की हार के पीछे मुख्य कारण गुमराह हुए ब्राह्मण, पिछड़े और मुसलमान समाज द्वारा वोट न देना है जिस के लिए उन्हें बाद में पछताना पड़ेगा. इस प्रकार मायावती ने स्पष्ट तौर पर मान लिया था कि उस का सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला फेल हो गया है. मायावती ने यह भी कहा था कि उस की हार के लिए उसका यूपीए को समर्थन देना भी था. उस ने आगे यह भी कहा था कि कांग्रेस और सपा ने उस के मुस्लिम और पिछड़े वोटरों को यह कह कर गुमराह कर दिया था कि दलित वोट भाजपा की तरफ जा रहा है. परन्तु इस के साथ ही उस ने यह दावा किया था कि उत्तर प्रदेश में उसकी पार्टी को कोई भी सीट न मिलने के बावजूद उस का दलित वोट बैंक बिलकुल नहीं गिरा है. इसके विपरीत उसने अपने वोट बैंक में इजाफा होने का दावा भी किया था.
आइये उस के इस दावे की सत्यता की जांच उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर करें:-
यदि बसपा के 2007 से लेकर अब तक चुनाव परिणामों को देखा जाये तो यह बात स्पष्ट तौर पर उभर कर आती है कि जब से मायावती ने बहुजन की राजनीति के स्थान पर सर्वजन की राजनीति शुरू की है तब से बसपा का दलित जनाधार बराबर घट रहा है. 2007 के असेंबली चुनाव में बसपा को 30.46%, 2009 के लोकसभा चुनाव में 27.42% (-3.02%), 2012 के असेंबली चुनाव में 25.90% (-1.52%) तथा 2014 के लोक सभा चुनाव में 19.60% (-6.3%) वोट मिला था. इस से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक के स्थिर रहने का दावा उपलब्ध आंकड़ों पर सही नहीं उतरता है.
मायावती का यह दावा कि उस का उत्तर प्रदेश में वोट बैंक 2009 में 1.51 करोड़ से बढ़ कर 2014 में 1.60 करोड़ हो गया है भी सही नहीं है क्योंकि इस चुनाव में पूरे उत्तर प्रदेश में बढ़े 1.61 करोड़ नए मतदाताओं में से बसपा के हिस्से में केवल 9 लाख मतदाता ही आये थे. राष्ट्रीय चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भी बसपा का वोट बैंक 2009 के 6.17 % से 2% से अधिक गिरावट के कारण घट कर 4.1% रह गया था. सेंटर फार स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटी के निदेशक संजय कुमार ने भी बसपा के कोर दलित वोट बैंक में सेंध लगने की बात कही थी.
मायावती का कुछ दलितों द्वारा गुमराह हो कर भाजपा तथा अन्य पार्टियों को वोट देने का आरोप भी बेबुनियाद है. मायावती यह अच्छी तरह से जानती हैं कि दलितों का एक बड़ा हिस्सा चमारों सहित 2012 के असेंबली चुनाव में ही उस से अलग हो गया था. इसका मुख्य कारण शायद यह था कि मायावती ने दलित राजनीति को उन्हीं गुण्डों. माफियों और पूंजीपतियों के हाथों बेच दिया है जो कि उनके वर्ग शत्रु हैं. इस से नाराज़ हो कर चमारों/जाटवों का एक हिस्सा और अन्य दलित उपजातियां बसपा से अलग हो गयी हैं.. मायावती का बोली लगा कर टिकट बेचना और दलित वोटों को भेड़ बकरियों की मानिंद किसी के भी हाथों बेच देना और इस वोट बैंक को किसी को भी हस्तांतरित कर देने का दावा करना दलितों को एक समय के बाद रास नहीं आया. इसी लिए पिछले असेंबली चुनाव और लोक सभा चुनाव में दलितों ने उसे उसकी हैसियत बता दी थी.
किसी भी दलित विकास के एजंडे के अभाव में दलितों को मायावती की केवल कुर्सी की राजनीति भी पसंद नहीं आई है क्योंकि इस से मायावती के चार बार मुख्य मंत्री बनने के बावजूद भी दलितों की माली हालत में कोई परिवर्तन नहीं आया है. एक अध्ययन के अनुसार उत्तर प्रदेश के दलित बिहार. उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के दलितों को छोड़ कर विकास के सभी मापदंडों जैसे: पुरुष/महिला शिक्षा दर, पुरुष/महिला तथा 0-6 वर्ष के बच्चों के लैंगिक अनुपात और नियमित नौकरी पेशे आदि में हिस्सेदारी में सब से पिछड़े हैं. मायावती के व्यक्तिगत और राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण दलितों को राज्य की कल्याणकारी योजनाओं का भी लाभ नहीं मिल सका. दूसरी तरफ बसपा पार्टी के पदाधिकारियों की दिन दुगनी और रात चौगनी खुशहाली से भी दलित नाराज़ हुए हैं जिस का इज़हार उन्होंने लोकसभा चुनाव में खुल कर किया था. यह भी ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश की 40 सीटें ऐसी हैं जहाँ दलितों की आबादी 25% से भी अधिक है. 2009 के लोक सभा चुनाव में बसपा 17 सुरक्षित सीटों पर नंबर दो पर थी जो कि 2014 में कम हो कर 11 रह गयी थी. इस से स्पष्ट है कि मायावती का दलित वोट बैंक के बरकरार रहने का दावा तथ्यों के विपरीत है.
मायावती ने 2012 के असेंबली चुनाव में भी मुसलामानों पर आरोप लगाया था कि उन्होंने उसे वोट नहीं दिया. पिछले लोकसभा चुनाव में मायावती ने इस आरोप को न केवल दोहराया था बल्कि बाद में उनके पछताने की बात भी कही थी. मायावती यह भूल जाती हैं कि मुसलामानों को दूर करने के लिए वह स्वयं ही जिम्मेवार हैं. 1993 के चुनाव में मुसलामानों ने जिस उम्मीद के साथ उसे वोट दिया था मायावती ने उस के विपरीत मुख्य मंत्री बनने की लालसा में 1995 में मुसलामानों की धुर विरोधी पार्टी भाजपा से हाथ मिला लिया था. इस के बाद भी उसने कुर्सी पाने के लिए दो बार भाजपा से सहारा लिया था. इतना ही नहीं 2003 में उस ने गुजरात में मुसलमानों के कत्ले आम के जिम्मेवार मोदी को कलीन चिट दी थी तथा उस के पक्ष में गुजरात जा कर चुनाव प्रचार भी किया था. आगे भी मायावती भाजपा से हाथ नहीं मिलाएगी इस की कोई गारंटी नहीं है. ऐसी मौकापरस्ती के बरक्स मायावती यह कैसे उम्मीद करती है कि मुसलमान उसे आँख बंद कर के वोट देते रहेंगे. मुज़फ्फरनगर के दंगे में मायावती द्वारा कोई भी प्रतिक्रिया न दिया जाना भी मुसलामानों को काफी नागुबार गुज़रा था.
मायावती द्वारा पिछली तथा 2014 की हार के लिए अपनी कोई भी गलती न मानना भी दलितों और मुसलामानों के लिए असहनीय रहा है. 2012 में उसने इस का दोष मुसलामानों को दिया था. 2014 में उसने इसे कांग्रेस सरकार को समर्थन देना बताया था . अगर यह सही है तो मायावती के पास इस का क्या जवाब है कि उस ने कांग्रेस सरकार को समर्थन क्यों दिया? केवल कट्टरपंथी ताकतों को रोकने की कोशिश वाली बात भी जचती नहीं. दरअसल असली बात तो सीबीआई के शिकंजे से बचने की मजबूरी थी जो कि आय से अधिक संपत्ति के मामले में अभी भी बनी हुयी है. भाजपा भी मायावती की इसी मजबूरी का फायदा उठाती रही है और आगे भी उठाएगी.
उपरोक्त संक्षिप्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि दलितों ने पिछली बार मायावती के सर्वजन वाले फार्मूले को बुरी तरह से नकार दिया था. मुसलामानों ने भी उस से किनारा कर लिया था. इस चुनाव में भी इस स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन आने की सम्भावना दिखाई नहीं देती है. वर्तमान में दलितों, मुसलामानों, मजदूरों, किसानों और छोटे कारखानेदारों और दुकानदारों के लिए मोदी की कार्पोरेटप्रस्त हिंदुत्व फासीवादी राजनीति सब से बड़ा खतरा है जिस का मुकाबला मायावती और मुलायम सिंह आदि की सौदेबाज, अवसरवादी और कार्पोरेटप्रस्त राजनीति द्वारा नहीं किया जा सकता है. इस के लिए सभी वामपंथी, प्रगतिशील और अम्बेडकरवादी ताकतों को एकजुट हो कर कार्पोरेट और फासीवाद विरोध की जनवादी राजनीति को अपनाना होगा.
(साभार ; दलित मुक्ति से)
↧
दलित राजनीति उलटी दिशा में बढ़ चली है
-- प्रो. तुलसी राम, जे.एन.यू
![]() |
प्रो. तुलसी राम, जे.एन.यू |
(जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्रोफेसर रहे तुलसीराम का इसी साल फरवरी में निधन हो गया. जीवन के अंतिम छह-सात साल उन्होंने असाध्य पीड़ा में गुजारे. हर हफ्ते उनका दो बार डायलिसिस होता था. पीड़ा के इस दौर में ही उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ लिखी. जीवन के आखिरी दिनों में स्वतंत्र मिश्र ने उनसे आंबेडकर की राजनीति और दर्शन के आईने में दलित राजनीति पर बातचीत की)
देश में दलितों की स्थिति में क्या कोई सुधार आया है?
दलितों से छुआछूत का मामला हो या मंदिर में प्रवेश को लेकर टकराहट या उनसे व्यभिचार की घटनाएं- लगभग हर रोज देश के किसी न किसी कोने से देखने-सुनने को मिल जाती हैं. मंदिर में प्रवेश के मसले पर दलितों की हत्या तक कर दी जाती है. थोड़ी पुरानी बात है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार के आने के बाद बरेली के पास ही एक गांव में मंदिर में दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया था. अखबार और टेलीविजन चैनलों ने इस घटना को छापा-दिखाया. पुजारी मंदिर में ताला लगाकर गांव छोड़कर भाग गया लेकिन पुलिस प्रशासन और सरकारी तंत्र में इसे लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखी.
देश में इस तरह की घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिए बहुत सख्त कानून मौजूद हैं. ‘दलित एक्ट’ के तहत सजा के कठोर प्रावधान किए गए हैं. दलित उत्पीड़न के संदर्भ में उन्हें उचित ढंग से लागू किया जाए तो उसके भय से ही बहुत हद तक ऐसी घटनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकेगा. दलित, सवर्णों के रास्ते से गुजर कर न जाएं इसलिए महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में कई जगहों पर बहुत ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर दी गईं. अफ्रीका में ‘रंगभेद’ की बातें जब थीं तब वहां काले लोगों के लिए चलने के लिए सड़कों पर अलग लेन होती थीं. उनके लिए दुकानें अलग होती थीं. वे गोरों की दुकानों से अपनी जरूरत का समान नहीं खरीद सकते थे. वे रेलगाडि़यों के सामान्य डिब्बों में यात्रा नहीं कर सकते थे. उनके लिए ट्रेनों में अलग डिब्बे होते थे. पर भारत में यह सब तो आज भी घट रहा है. ‘रंगभेद’ व्यवस्था के खिलाफ पूरी दुनिया एक हो गई थी. भारत भी ‘रंगभेद’ के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था. उस जमाने में अफ्रीका के लिए ‘वीजा’ नहीं मिलता था. मुझे याद है कि उन दिनों मुझे भारत सरकार ने 1980 के आसपास किसी साल में पासपोर्ट जारी किया तो उसपर साफ-साफ लिखा था कि आप दो देशों (अफ्रीका और इजरायल) की यात्रा नहीं कर सकते थे. लेकिन यह सोचकर भी शर्म आती है कि आज 21वीं सदी के भारत में भी ऐसी घटनाएं घट रही हैं! ‘रंगभेद’ के खिलाफ जो माहौल पूरी दुनिया में बना वैसा भारत में ‘जाति-व्यवस्था’ के खिलाफ कभी बन नहीं पाया. ‘रंगभेद’ की जो विशेषताएं थीं, वे सब इस जाति व्यवस्था में पाई जाती हैं. यहां जाति-व्यवस्था के बने रहने की मूल वजह ‘हिन्दू धर्म’ है. धार्मिक व्यवस्था में बदलाव लाए बगैर आप सिर्फ कानून के सहारे सामाजिक या धार्मिक स्तर पर दलित उत्पीड़न खत्म नहीं कर सकते. चाहे इस देश में लेनिन ही क्यों न पैदा हो लें.
मतलब आप यह कहना चाह रहे हैं कि जाति-व्यवस्था या दलित उत्पीड़न को खत्म करने के प्रयास अपने देश में ईमानदारी से नहीं हुए?
मैं आपको थोड़ा पीछे स्वतंत्रता संग्राम में ले जाना चाहूंगा. 1929-30 के आसपास गांधी जी की बाबा साहब अांबेडकर की पहली मुलाकात हुई थी तब उन्होंने आंबेडकर से कहा कि मैंने देश की आजादी का आंदोलन छेड़ रखा है. अांबेडकर ने बहुत दिलचस्प जवाब दिया, ‘मैं सारे देश की आजादी की लड़ाई के साथ उन एक चौथाई जनता के लिए भी लड़ना चाहता हूं जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. आजादी की लड़ाई में सारा देश एक है और मैं जो लड़ाई लड़ रहा हूं, वह सारे देश के खिलाफ है. मेरी लड़ाई बहुत कठिन है.’ औपनिवेशिक सत्ता (अंग्रेजों) के खिलाफ तो सारा देश खड़ा था इसलिए उनका जाना तय था लेकिन देश के लोग अपने ही लोगों के साथ जो भेदभाव बरत रहे हैं तो मेरी लड़ाई तो उनसे भी है. दलितों, पिछड़ों को न तो जमीन रखने का अधिकार था, न ही उन्हें शिक्षा पाने का अधिकार था. वे सदियों से जमींदारों और सामंतों के खेतों और कारखानों में मजदूरी करते चले आ रहे थे. हिंदू धर्म, वर्ण व्यवस्था और जातिगत व्यवस्था की खुलकर वकालत करते हैं. डॉ. अांबेडकर ने सोचा कि यहां जातिगत व्यवस्था का मूल आधार धार्मिक व्यवस्था से ही लड़ना पड़ेगा. संकेत के तौर पर 1927 में डॉ. अांबेडकर ने ‘मनुस्मृति’ को जलाया. यह यहां दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस हिंदू धर्म-ग्रंथ में शूद्रों के बारे में क्या-क्या लिखा गया है. मनुस्मृति के जलाए जाने से हिंदू घबरा उठे.
धार्मिक व्यवस्था में बदलाव लाए बगैर आप सिर्फ कानून के सहारे सामाजिक या धार्मिक स्तर पर दलित उत्पीड़न खत्म नहीं कर सकते. चाहे इस देश में लेनिन ही क्यों न पैदा हो लें.
एक उदाहरण और देना चाहूंगा. अपने देश में दलितों को कुएं और तालाब से पानी नहीं लेने दिया जाता था. महाराष्ट्र में इस भेदभाव से लड़ने के लिए बाबा साहब ने ‘महाड़’ आंदोलन चलाया. जलगांव में एक तालाब के किनारे लाखों की संख्या में दलित जुटे और उन्होंने प्रकृति के पानी पर अपना हक जताया था. बाद में कोंकणी ब्राह्मणों ने उस तालाब के शुद्धिकरण के लिए मंत्रोच्चारण और पूजा-पाठ आयोजित करवाया. इसके विरोध में अांबेडकर ने 12 दलितों का चयन किया और कहा कि तुम इस्लाम स्वीकार कर लो. देश में सनसनी फैल गई. तत्काल ब्राह्मणों ने दलितों के लिए गांव के दो कुएं पानी लेने के लिए खोल दिए. ब्राह्मणों ने इस दबाव में कुएं का पानी लेने की आजादी दलितों को दे दी क्योंकि उन्हें लगा कि उनका धर्म खतरे में पड़ जाएगा. अांबेडकर ने पूना-पैक्ट के समय यह बयान दिया कि वे बौद्ध धर्म अपना लेंगे तो तुरंत पैक्ट पर समझौता हो गया. पूना पैक्ट की वजह से दलितों का बहुत लाभ हुआ. उनका सबलीकरण इस पैक्ट की वजह से ही संभव हो पाया. इसी पैक्ट की वजह से दलितों को आरक्षण आधा-अधूरा ही सही मिल पाया. इसी पैक्ट के नतीजे के चलते दलित समुदाय के लोग मंत्री, मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति भी बन पाए. इसी पैक्ट की वजह से लाखों की संख्या में दलितों के लिए शिक्षा के दरवाजे खुले. इस बारे में प्रसिद्ध कहानीकार चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का एक लेख है ‘कछुआ धर्म’. वे पंडित थे. हर रोज पूजा-अर्चना करते थे. टीका लगाते थे. उन्होंने अपने लेख में हिंदू धर्म की बहुत अच्छी व्याख्या की थी. उन्होंने लिखा है, ‘हिंदू धर्म को जब अपने ऊपर खतरा नजर आता है तब वह कछुए की तरह अपनी गर्दन और मुंह अंदर समेट कर मृत के समान निष्क्रिय होने का प्रदर्शन करता है लेकिन जब कोई संकट नहीं दिखता है तब वह गर्दन उठाकर आक्रामक मुद्रा में ऐसे चलता है मानो पूरी दुनिया जीतने निकला हो.’
प्राचीन काल से एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा. गौतम बुद्ध ने अपनी शिक्षा और उपदेशों के बल पर जाति-व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा लिया और धर्म-परिवर्तन किया. बड़ी संख्या में ब्राह्मण ही बौद्धभिक्षु बने. कई राजाओं ने भिक्षुओं के खिलाफ अभियान चलाया. पुष्यमित्र आदि राजाओं ने छोटे-मोटे अभियान चलाए. सबसे जोरदार अभियान बौद्ध-धर्म के खिलाफ 9वीं शताब्दी में शंकराचार्य के समर्थकों ने चलाए. शंकराचार्य और उसके समर्थकों को हिंदू राजाओं का समर्थन था, उन्हें किसी का डर नहीं था तो वे बौद्ध मठों को तोड़ने और भिक्षुओं पर हमले करने लगे. दरअसल, बुद्ध वर्ण व्यवस्था पर चोट कर रहे थे. वे मानव-मानव के बीच वर्ण के आधार पर भेद करने की बात को झुठला रहे थे. वर्ण व्यवस्था की रक्षा और शंकराचार्य का समर्थन पाकर तीसरी सदी में व्यापक स्तर पर हिंदू धर्म-ग्रंथ रचे गए. उससे पूर्व सिर्फ वेदों की रचनाएं ही हुई थीं, जिनका जिक्र बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है. बौद्ध-ग्रंथों में रामायण और महाभारत की चर्चा नहीं मिलती है. बुद्ध के आसपास ही चार्वाक भी हुए जिन्होंने तीन वेद होने की ही बात की है. मतलब साफ है कि सिर्फ तीन वेद ही बुद्ध-चार्वाक के समय तक रचे गए थे. आप गौर करें तो पाएंगे, शंकराचार्य के बाद जिस भी धर्म ग्रंथ की रचना की गई, उनमें वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया गया है.
आप पूना पैक्ट के जरिए दलितों के जीवन में बदलाव आने की बात कर रहे हैं, लेकिन अक्सर यह सुनने को मिलता है किसी भी सरकार ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया है. उत्तर प्रदेश के संदर्भ में आपका जबाव चाहूंगा?
हां, सरकारों द्वारा दलितों के विकास के लिए उठाए गए कदम संतोषजनक नहीं कहे जा सकते हैं लेकिन यह कहना कि दलितों के लिए किसी भी सरकार ने कुछ नहीं किया है, एक उग्रवादी किस्म की सोच है. उत्तर प्रदेश हिंदुत्ववादियों का सबसे बड़ा केंद्र रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बहुत सारी धार्मिक नदियां उत्तर प्रदेश से होकर गुजरती हैं इसलिए इस प्रदेश का सबसे ज्यादा सांप्रदायीकरण हुआ है. गंगा का सबसे बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश में है. कुंभ का आयोजन इलाहाबाद में होता है. ज्योतिर्लिंग बनारस में है. मेरे कहने का मतलब यह है कि उत्तर प्रदेश हिंदुत्व को उर्वर भूमि प्रदान करने का काम करती रही है. यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में कुछ भी घटित होता है तो उसका असर दूसरे राज्यों पर जरूर पड़ता है. इसलिए मेरा मानना है कि अगर उत्तर प्रदेश में जाति-व्यवस्था को कमजोर कर दिया जाए तो उसका असर पूरे देश पर पड़ेगा.
मायावती या कोई दलित हजार बार भी मुख्यमंत्री बन जाए, उससे दलितों के जीवन में परिवर्तन नहीं आनेवाला. परिवर्तन सामाजिक आंदोलन के दबाव के फलस्वरूप ही आ पाएगा
कांशीराम -मायावती का आंदोलन और खासकर मायावती का उत्तर प्रदेश की सत्ता में आसीन होने का असर दलितों की जिंदगी बदलने में कितना हो पाया है?
जाति-व्यवस्था के खिलाफ सामाजिक आंदोलन चलाए गए थे. वह बुद्ध, ज्योतिबा फुले से लेकर आंबेडकर तक चलता चला आ रहा है. आंबेडकर के बाद जो भी दलित आंदोलन हुए उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि सभी दलित नेतृत्व अपनी-अपनी अलग-अलग डफली पीटते चले गए. खुद आंबेडकर द्वारा खड़ी की गई रिपब्लिकन पार्टी भी बाद के दिनों में चार भागों में बंट गई. उसका एक भाग रामदास अठावले के नेतृत्व में पहले शिवसेना और बाद में भाजपा में शामिल हो चुका है. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में शामिल हो गए. एक भाग में योगेंद्र कबाड़े थे, वे अब भाजपा में हैं. रिपब्लिकन पार्टी के एक भाग के नेता आरएस गंवई थे जो कांग्रेस में शामिल हो गए. कुछ दिनों तक वे केरल के राज्यपाल भी रहे. आंबेडकर के बाद उनकी पार्टी विखंडित हुई और उसका अधिकांश हिस्सा दक्षिणपंथी पार्टियों में शामिल होता चला गया. निश्चित तौर पर इससे सामाजिक न्याय की लड़ाई कमजोर हुई. दलित राजनीति में निर्वात-सा बन गया. उसका फायदा निश्चित तौर पर कांशीराम को मिला.
कांशीराम ने शुरू में यह तय किया कि दलितों को सबसे पहले सामाजिक तौर पर चेतना संपन्न किया जाए. 1960-80 तक उन्होंने चुनाव लड़ने की बात नहीं की थी. इस दलित राजनीति का मूलाधार बामसेफ पार्टी रही. कांशीराम ने सामाजिक जागृति के लिए बहुत मेहनत की. वे गली-गली साइकिल पर घूमते थे. उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन का असर बहुत पड़ा. उन्होंने दलितों को अपने आंदोलन से बड़ी संख्या में जोड़ा. दलितों को संगठित करने के बाद उन्होंने राजनीति में उतरने की बात की जिसके चलते बामसेफ भी कई भागों में बंट गया. कांशीराम से अलग हुए दूसरे दल सामाजिक जागृति फलाने की बात पर जोर देने की बात कर रहे थे. आंबेडकर ने सामाजिक बदलाव कोई मंत्री पद पर रहते हुए नहीं किया था. सामाजिक आंदोलनों के जरिए जो परिवर्तन समाज में आता है, वह स्थायी भाववाला होता है.
मतलब आप यह कह रहे हैं कि सामाजिक परिवर्तन की बात मायावती तक आते-आते पीछे छूट गई?
सामाजिक परिवर्तन पीछे ही नहीं छूटा बल्कि उलटी दिशा में चल पड़ा. कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी और राजनीति में पूरी तरह उतर गए. सामाजिक आंदोलन से जो दबाव समाज में बनता था, वह दबाव बनना खत्म हो गया और जिसके चलते दलित उत्पीड़न की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ, इसे साफ-साफ महसूस किया जा सकता है. गांधी और आंबेडकर की जब बातचीत हो रही थी तब उन्होंने साफ-साफ कहा था कि सामाजिक आंदोलनों का राजनीतिक आंदोलनों पर वर्चस्व होना चाहिए. राजनीतिक आंदोलन के चलते सत्ता तो मिल जाएगी लेकिन समाज में बदलाव नहीं आ पाएगा इसलिए यदि समाज बदलना है तो सामाजिक आंदोलन बहुत जरूरी हैं.
क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि कांशीराम और मायावती द्वारा सामाजिक आंदोलन को अचानक बंद करके राजनीति शुरू कर देने से समाज में बदलाव की दिशा में निर्वात की स्थिति बन गई?
जी हां, बहुत बड़ा निर्वात बन गया और अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो आज दलितों की स्थिति कई गुणा ज्यादा बेहतर होती. मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि दलितों को राजनीति में नहीं आना चाहिए. मैं यह कहना चाह रहा हूं कि सामाजिक आंदोलन से मानस में बदलाव आता है और इसका असर दलित ही नहीं बल्कि गैर-दलितों पर भी देखा जा सकता है. कांशीराम के राजनीति में आने के फैसले से दलितों की सामाजिक स्थिति में जो सुधार दर्ज किया जा रहा था, वह उलटी दिशा में चल पड़ा.
क्या इस परिस्थिति से जो सामाजिक दबाव बनने लगा था वह अब नहीं बन पा रहा है. क्या इसकी वजह से भी दलितों के उत्पीड़न के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है?
देखिए, कांशीराम-मायावती ने जब तक सामाजिक आंदोलन छेड़े रखा था तब तक हर राजनीतिक पार्टी इस दबाव में काम करती थी कि बिना दलित को साथ लिए चुनाव जीतना मुश्किल होगा. लेकिन मायावती के राजनीति में आते ही ब्राह्मण सत्ता के केंद्र में आ गए. ब्राह्मणों के बारे में यह गुणगान होने लगा कि वे हाशिये पर चले गए हैं. उनकी स्थिति खराब हो गई है. मैं यहां किसी खास व्यक्ति के बारे में बात नहीं कर रहा हूं. ब्राह्मण का मतलब व्यवस्था से मानता हूं. कांशीराम पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार…’ का नारा लगाते थे लेकिन राजनीति में आते ही वे ‘हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ के नारे लगाने लगे. ब्रह्मा, विष्णु और महेश के खिलाफ अांबेडकर पूरा जीवन लड़ते रहे. कांशीराम और मायावती ने इसे उलट दिया.
कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के निर्माण के बाद एक और खतरनाक कदम उठाया था. उन्होंने कहा कि अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो और इसी से कल्याण होगा. इसके बाद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों की अलग-अलग जातियों के सम्मेलन होने लगे. लेकिन कांशीराम और मायावती भूल गए कि जातियों के मजबूत होने से जाति-व्यवस्था कैसे टूटेगी? इससे हरेक जाति का गौरव भड़क उठा और सामाजिक बदलाव और जाति-व्यवस्था के खिलाफ चल रहे आंदोलन को जोरदार झटका लगा. राजनीति में जातीय धुव्रीकरण बड़े पैमाने पर होने लगा. जातियों के नाम पर अलग-अलग जाति के गुंडे ध्रुवीकरण की वजह से जीतकर नगरपालिका से लेकर विधानसभा और संसद तक में पहुंचने लगे. आज राजनीति का चेहरा जातीय ध्रुवीकरण की वजह से ज्यादा विद्रूप हो गया है. इसकी वजह से देश में लोकतंत्र नहीं जातियां फल-फूल रही हैं. अब पार्टियां नहीं जातियां सत्ता में आने लगी हैं. कांशीराम-मायावती ने सभी जातियों के लोगों से मंत्री पद देने का वायदा किया. सत्ता में आने के बाद मायावती ने ऐसा किया भी लेकिन सभी सुख-सुविधा पाने के बाद भी उन जातियों के लोगों ने पांच साल के भीतर ही इन्हें लात मारकर किनारा कर लिया. मतलब यह है कि आप जाति-व्यवस्था खत्म करने की लड़ाई को मजबूत नहीं करेंगे और जातियों को मजबूत करने की बात करेंगे तो इससे दलित विरोधी शक्तियां ही मजबूत होंगी. बसपा के शासनकाल में तमाम जातियां दलित विरोधी शक्तियों के रूप में खड़ी हो गईं.
कांशीराम पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार’ का नारा लगाते थे लेकिन राजनीति में आते ही वे ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश है’ के नारे लगाने लगे.
यह अक्सर आरोप लगाया जाता है कि दलित चिंतक, दलित नेतृत्व ही दलित महिलाओं की उपेक्षा करते हैं.वे ही उन्हें आगे नहीं आने देना चाहते हैं.
जी, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं. बाबा साहेब ने अपने आंदोलन के जरिए यह कोशिश की थी कि दलित महिलाएं आगे आएं. वे दलित महिलाओं के साथ हिंदू महिलाओं को भी आगे लाने की बात कर रहे थे. इसलिए 1951 में वह हिंदू कोड बिल लेकर आए. हिंदू कोड बिल, सवर्ण महिलाओं को पिता की संपत्ति में अधिकार देने और दहेज प्रथा आदि जैसी कुरीतियों के खिलाफ लाया गया. लेकिन उस समय बनारस, इलाहाबाद और देश के दूसरे हिस्सों के साधू-संन्यासी गोलबंद होकर बिल के विरोध में उठ खड़े हो गए. बिल को स्वीकृति नहीं मिल पाई. दलित पुरुष नेता तो कई उभरे लेकिन महिला नेतृत्व नहीं उभर पाया. बाबा साहब की मृत्यु आजादी के चंद वर्षों बाद ही हो गई. उसके बाद जगजीवन राम आए तो उन्होंने भी दलित महिलाओं को नेतृत्व दिलाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया. उनकी मृत्यु के बाद उनकी बेटी मीरा कुमार राजनीति में आईं जरूर लेकिन उन्हें यह विरासत में मिली. उन्हें राजनीति संघर्ष के रास्ते से नहीं मिली है. रिपब्लिकन पार्टी के चारों धड़े जिसका मैंने पहले जिक्र किया उसमें से कोई महिला नेतृत्व सामने नहीं आया. मायावती ने तो हद ही कर दी. उसके नेतृत्व में कोई दलित पुरुष तो छोडि़ए, कोई दलित महिला भी आगे नहीं आ पाई. दलित राजनीति में मायावती को छोड़कर कोई दूसरी महिला नजर नहीं आती हैं. मायावती खुद चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन किसी दूसरी दलित महिला को उन्होंने आगे नहीं आने दिया. मायावती की सामंती सोच देखिए कि उन्होंने पांच-छह वर्ष पहले अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की बात की थी. उन्होंने यह भी कहा था, ‘मैं अपने उत्तराधिकारी का नाम एक लिफाफे में बंद करके जाऊंगी. मेरे मरने के बाद लिफाफा खोला जाएगा.’ मैं इस बात का जिक्र सिर्फ इसलिए कर रहा हूं ताकि आनेवाली पीढ़ी दलित राजनीति में महिलाओं की स्थिति को समझ सके और उसे दुरुस्त करने की कवायद में लगे. दलित राजनीति में सफल पुरुष ने अपनी पत्नी को गृहणी बनाकर रखना पसंद किया. यह स्त्रीविरोधी मानसिकता है और यह भी उसी धर्म व्यवस्था की देन है. इसकी शिकार दूसरी पार्टियां भी रही हैं. महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का मामला दसियों साल से लटका पड़ा है. स्त्री विरोधी मानसिकता को मीडिया और सिनेमा भी बढ़ावा दे रहे हैं. पतियों की पूजा कीजिए और यह इच्छा कीजिए कि वह आपको बराबरी का दर्जा देगा, परस्पर विरोधी बातें हैं. कर्मकांडी व्यवस्था को खत्म किए बगैर स्त्रियों का कभी भी भला नहीं हो सकता है.
साभार: तहलका हिंदी
↧
कांशीरामवाद को परास्त किया हेडगेवारवाद ने !
यूपी विधानसभा चुनाव की विस्मयकारी विजय के बाद नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व और अमित शाह की रणनीति की भूरि-भूरि चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है लोग अब मोदी की तुलना इंदिरा गाँधी से करने लगे हैं.आज उनके करिश्मे से अभिभूत ढेरों लोग अभी से ही उन्हें 2019 लोकसभा चुनाव का विजेता घोषित करने लगे हैं.लेकिन भारी अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि मोदी की प्रशंसा में पंचमुख राजनीति के पंडितों में कोई भी भाजपा की चौकाने वाली सफलता के पृष्ठ में हेडगेवार की चर्चा नहीं कर रहा है, जबकि ऐसा किया जाना जरुरी था. कारण, भाजपा की वर्तमान सफलता मोदी – शाह से बढ़कर हेडगेवारवाद की विजय है. कैसे! इसे जानने के 1925 के दिनों के पन्ने पलटने पड़ेंगे.
1925 के पूर्व दिनों में हालात बड़ी तेजी से ब्राह्मणों के विरुद्ध होने लगे थे.उन दिनों अग्रणीय ब्राह्मण विद्वान लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में ब्राह्मणों को विदेशी प्रमाणित करने की होड़ तुंग पर पहुँच चुकी थी.1922 में सिन्धु-सभ्यता के सत्यान्वेषण ने भारत में प्राचीनतम विदेशागत लोगों के आगमन की पुष्टि कर दी थी. उधर सिन्धु सभ्यता के सत्यान्वेषण और ज्योतिबा फुले के आर्य –अनार्य सिद्धांत से प्रेरित ई.व्ही.रामास्वामी नायकर पेरियार दक्षिण भारत में आर्य-द्रविड़ सिद्धांत का प्रचार कर ब्राह्मण सत्ता के विनाश की आधारशिला तैयार करना शुरू कर चुके थे.इस दौरान ब्रिटेन में 30 वर्ष से ऊपर की महिलाओं के मताधिकार का कानून पास हो चुका था.इन सारे हालातों पर किसी की सजग दृष्टि थी तो बंगाल की ‘अनुशीलन समिति’,जिसमें शुद्रातिशूद्रों का प्रवेश पूरी तरह निषिद्ध था, के पूर्व सदस्य डॉ.हेडगेवार की. उन्हें यह अनुमान लगाने में कोई दिक्कत नहीं हुई कि अग्रेजों के चले जाने के बाद भारत में भी संसदीय प्रणाली लागू होगी,जिसमें विशिष्टजन ही नहीं ,भूखे-अधनंगे दलित-पिछड़ों को भी वोट देने, अपना प्रतिनिधि चुनने का अवसर मिलेगा .वोटाधिकार मिलने पर दलित-आदिवासी और पिछड़े और चाहें जो कुछ भी करें,अंततः तिलक-नेहरु इत्यादि द्वारा विदेशी प्रमाणित किये गए ब्राह्मणों को वोट तो नहीं ही देंगे.इसी चिंता से ही, जिन दिनों देश के दूसरे नेता आजादी की जंग लड़ रहे थे,उन्होंने आजाद भारत के ब्राह्मणों के हित में मुस्लिम-विद्वेष और हिन्दू-धर्म-संस्कृति के उज्जवल पक्ष के प्रचार-प्रसार के जरिये विशाल हिन्दू समाज बनाने में खुद को निमग्न किया. उन्होंने अपनी प्रखर मनीषा से यह जान लिया था कि जो दलित-पिछड़े हिन्दू-धर्म के अनुपालन के नाम पर सदियों से पशुवत जिंदगी जीते रहे हैं,उन्हें जब मुस्लिम विद्वेष और हिन्दू-धर्म के नाम पर उद्वेलित किया जायेगा, वे आसानी से हिन्दू के नाम पर ध्रुवीकृत हो जायेंगे. और जब असंख्य जातियों में बंटे लोग हिन्दू के नाम पर ध्रुवीकृत होंगे ,नेतृत्व स्वतः ही ब्राहमणों के हाथ में चला जायेगा. इसी सोच के तहत उन्होंने विशाल हिन्दू समाज बनाने के लिए 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी.डॉ.हेडगेवार से यह गुरुमंत्र पा कर संघ अरसे से चुपचाप काम करता रहा.किन्तु मंडल रिपोर्ट के बाद जब दलित-पिछड़ों के हाथ में सत्ता के जाने के आसार दिखा,संघ ने अपने तीन दर्जन आनुषांगिक संगठनों के साथ मिलकर राम जन्मभूमि मुक्ति के नाम पर आजाद भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन खड़ा कर दिया.इस आन्दोलन में संघ परिवार ने बाबर की संतानों के प्रति वंचित जातियों में वर्षों से संचित अपार नफरत और राम के प्रति दुर्बलता का जमकर सद्व्यवहार किया. परिणाम सबको मालूम है.इस आन्दोलन को दूर से निहारते रहने वाले ब्राह्मण अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दू-ध्रुवीकरण की नैया पर सवार होकर केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए. राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन की सफलता के बाद संघ परिवार चुनाव दर चुनाव विकास की आड़ में प्रधानतः हिन्दू ध्रुवीकरण के सहारे सत्ता दखल की मंजिलें तय करता गया .बहरहाल संघ संस्थापक की दूरगामी परिकल्पना को किसी ने समझा तो वह थे कांशीराम.
कांशीराम ने जब सार्वजानिक जीवन में प्रवेश कर भारत के अतीत ,वर्तमान और भविष्य का अध्ययन किया तो उन्हें विशाल ‘हिन्दू समाज’ के विपरीत ‘बहुजन समाज’ बनाने से भिन्न कोई उपाय नजर नहीं आया.उन्होंने डॉ.हेडगेवार के फार्मूले से यह जान लिया कि अगर हिन्दू धर्म-संकृति के उज्जवल पक्ष और अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत के जरिये वंचित जातियों को हिन्दू के नाम पर गोलबंद कर नेतृत्व यदि ब्राह्मण व सवर्णों के हाथ में थमाया जा सकता है तो हिन्दू –धर्म –संस्कृति के अंधकार पक्ष अर्थात वर्ण व्यवस्था की वंचना और व्यवस्था के लाभान्वित वर्ग के खिलाफ वंचितों को आक्रोशित कर विशाल बहुजन समाज बनाया जा सकता है. ऐसा होने पर सत्ता की बागडोर अवश्य ही दलित-आदिवासी –पिछडों या इनसे धर्मान्तरित लोगों के हाथ में थमाई जा सकती है.हालांकि कांशीराम ने यह कभी कबूल नहीं किया कि उन्होंने हेडगेवार का अनुसरण किया है,लेकिन उनकी कार्य प्रणाली में उसकी झलक मिलती है.चूंकि कार्य प्रणाली एक होने के बावजूद ‘विशाल हिन्दू-समाज ‘और ‘बहुजन समाज ‘दो विपरीत ध्रुव हैं,इसलिए उनका उल्टा फार्मूला ही एक दूसरे के खिलाफ रास आता है.यही कारण है कि भारतीय समाज का लम्बे समय तक अध्ययन करने के बाद जब कांशीराम ने 6 दिसंबर 1978 को बामसेफ (आल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनरिटीज इम्प्लायज फेडरेशन) नामक अपंजीकृत,गैर-धार्मिक,गैर-आन्दोलानात्मक और गैर-राजनीतिक संगठन बनाया तो हेडगेवार जिस आर्य-अनार्य सिद्धांत से अपने समाज को बचाना चाहते थे, उसको प्रधानता देने से वे खुद को रोक नहीं पाए .हाँ!डॉ.हेडगेवार और कांशीराम ने अपने-अपने सपनों के भारत निर्माण के जो वैचारिक संगठन तैयार किया उनमें एक ही साम्यता रही कि दोनों ही घोषित तौर पर अराजनैतिक संगठन रहे,पर मूल मकसद राजनीतिक रहा. इस मकसद को हासिल करने के लिए संघ जहां वंचितों की धार्मिक चेतना के राजनीतीकरण पर सक्रिय रहा,वहीँ बामसेफ वर्ण-व्यवस्था के वंचितों की जाति चेतना पर. संघ जहां अल्पसंख्यकों,विशेषकर मुस्लिमों के खिलाफ नफरत को हथियार बनाया,वहीँ बामसेफ शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक –धार्मिक-शैक्षिक )पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा जमाये सवर्णों,विशेषकर ब्राह्मणों के खिलाफ बहुजनों को संगठित करने का हर मुमकिन प्रयास किया.हां ,बामसेफ ने भी संघ की तर्ज पर जागृति जत्था,बामसेफ सहकारिता,समाचार पत्र एवं प्रकाशन,संसदीय संपर्क शाखा,विधिक सहयोग एवं सलाह,विद्यार्थी,युवक,महिलाएं,औद्योगिक श्रमिक ,खेतिहर श्रमिक इत्यादि जैसे कई विंग स्थापित किये .इनके जरिये ही कांशीराम ने योजनाबद्ध तरीके से पहले दलितों की जाति चेतना का राजनीतिकरण किया जो धीरे-धीरे पिछड़ों और अल्पसंख्यकों तक में प्रसारित हो गयी. इसके फलस्वरूप मंडल उत्तर काल में सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील होने के लिए बाध्य हुए.यह कांशीराम की जाति चेतना की रणनीति का ही कमाल था कि तमाम राजनीतिक दल,जिनमें संघ का राजनीतिक संगठन भाजपा भी है,नेतृत्व गैर-ब्राह्मणों,विशेषकर पिछड़ों के हाथ में देने के लिए बाध्य हुए.
बहरहाल सवर्णवादी दलों की लाचारी दीर्घ स्थाई न हो सकी.कारण, जाति चेतना के चलते क्षत्रप बने बहुजन समाज के नेता 2009 आते-आते अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए सवर्णपरस्ती की राह पकड़ लिए.अब उनमें सवर्णों के खिलाफ बहुजनों को ध्रुवीकृत करने का जज्बा ही नहीं रहा.इस कारण बहुजन नेतृत्व ‘भूरा बाल..’तिलक तराजू..इत्यादि जैसे उन नारों से तौबा कर लिया,जो बहुजनों की जाति चेतना के राजनीतिकरण में प्रभावी रोल अदा किया करते थे. किन्तु घोषित तौर पर विकास की बात करनेवाले संघवादी डॉ.हेडगेवार के फार्मूले से कभी डिगे नहीं.इसलिए उनका धार्मिक चेतना के राजनीतिकरण से कभी विचलन नहीं हुआ.यही कारण है 2014 से हेडगेवारपंथी हिंदी पट्टी की राजनीति में नए सिरे से छाते चले गए.बहुजनों के सौभाग्य से अरसे बाद लालू प्रसाद यादव ने 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में जाति चेतना के राजनीतिकरण का रिस्क लिया और रास्ता दिखाया कि जाति चेतना के जरिये साधू-संतों और लेखकों तथा मीडिया और धनपतियों के प्रबल समर्थन से पुष्ट करिश्माई मोदी को शिकस्त दी जा सकती है.
लालू यादव ने जिस तरह अपने प्रबल प्रतिद्वंदी नीतीश कुमार से गंठजोड़ कर मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा सम्बन्धी बयान को पकड़कर जाति चेतना की राजनीति को तुंग पर पहुँचाया,वैसे हालात यूपी में बने थे .किन्तु बहुजन हित की बजाय अपने मान-अभिमान को प्राथमिकता देने वाले मायावती और अखिलेश यादव ने शक्तिशाली भाजपा के खिलाफ गंठबंधन से तौबा किया ही,मोहन भागवत की भांति ही संघ के मनमोहन वैद्य ने आरक्षण पर बयान देकर जो अवसर स्वर्णिम अवसर सुलभ कराया, उसका सद्व्यहार करने कोई रूचि नहीं लिया.खासतौर से संघ के मनमोहन वैद्य के बाद सपा की अपर्णा यादव के आरक्षण विरोधी बयान ने मायावती के समक्ष तो दोहरा अवसर सुलभ करा दिया था.किन्तु वह इसका सद्व्यहार करने आधे-अधूरे मन से आगे बढ़ी,जिसका परिणाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया.बहरहाल यूपी में भाजपा की हैरतंगेज विजय के बाद लगता है कि हेडगेवारवाद ने कांशीरामवाद पर निर्णायक विजय हासिल कर ली है. लेकिन ऐसा नहीं है.यदि सामाजिक न्यायवादी दल संगठित होकर इमानदारी से दलित,आदिवासी,पिछड़ों और इनसे धर्मातरित तबकों के लिए सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों सहित सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग,परिवहन,फिल्म-मीडिया, ज्ञान-उद्योग और पौरोहित्य इत्यादि तमाम क्षेत्रों में संख्यानुपात में भागीदारी की मांग उठायें तो इससे जाति चेतना का वह सैलाब उठेगा जिसके सामने धार्मिक चेतना पर निर्भर राजनीति तिनके की भांति बह जाएगी.पर लाख टके का सवाल है कि बहुजन नेतृत्त्व क्या कांशीरामवाद को नए सिरे से धार देने की दिशा में आगे बढ़ेगा !
-एच एल दुसाध
March 25, 2017
----------------------------------
कांशीराम जहाँ छोड़ गए,मायावती वहां से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाईं !
मित्रों,एक लेख लिखने के लिए अभी-अभी 2009 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ,’सामाजिक न्याय की राजनीति की हार’ के पन्ने उलट रहा था.अचानक इसके पृष्ठ 161 पर मेरी दृष्टि स्थिर हो गयी ,जिस पर 16 जून ,2009 को जनसता में प्रकाशित अरुण कुमार पानीबाबा का ‘मायावती का चरित्र और व्यक्तित्व शीर्षक से लेख संकलित है.पानीबाबा ने लिखा है-:
‘मायावती का व्यक्तित्व और चरित्र मूलतः अराजनीतिक है.बरसों-बरस उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहने के बावजूद मायावती को राजनीतिज्ञ स्तर के व्यक्ति को झेलने का अभ्यास नहीं है,और यह सीख पाना संभव नहीं है.इसलिए यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि मायावती को कांशीराम जहां पहुंचा कर गए थे.उससे एक इंच भी आगे वे नहीं बढ़ सकतीं.’
इसका मतलब यह हुआ कि 2009 में ही राजनीतिक विश्लेषकों ने बहन जी को उनकी सीमाबद्धता का अहसास करा दिया था,किन्तु उन्होंने उससे कोई सबक नहीं लिया और चुनाव दर चुनाव उस ‘बसपा’ के पतन की स्क्रिप्ट लिखती गयीं,जिस बसपा को दुनिया भर के समाज परिवर्तनकामी बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे थे.
----------------------------------
कांशीराम जहाँ छोड़ गए,मायावती वहां से एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाईं !
मित्रों,एक लेख लिखने के लिए अभी-अभी 2009 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ,’सामाजिक न्याय की राजनीति की हार’ के पन्ने उलट रहा था.अचानक इसके पृष्ठ 161 पर मेरी दृष्टि स्थिर हो गयी ,जिस पर 16 जून ,2009 को जनसता में प्रकाशित अरुण कुमार पानीबाबा का ‘मायावती का चरित्र और व्यक्तित्व शीर्षक से लेख संकलित है.पानीबाबा ने लिखा है-:
‘मायावती का व्यक्तित्व और चरित्र मूलतः अराजनीतिक है.बरसों-बरस उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहने के बावजूद मायावती को राजनीतिज्ञ स्तर के व्यक्ति को झेलने का अभ्यास नहीं है,और यह सीख पाना संभव नहीं है.इसलिए यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि मायावती को कांशीराम जहां पहुंचा कर गए थे.उससे एक इंच भी आगे वे नहीं बढ़ सकतीं.’
इसका मतलब यह हुआ कि 2009 में ही राजनीतिक विश्लेषकों ने बहन जी को उनकी सीमाबद्धता का अहसास करा दिया था,किन्तु उन्होंने उससे कोई सबक नहीं लिया और चुनाव दर चुनाव उस ‘बसपा’ के पतन की स्क्रिप्ट लिखती गयीं,जिस बसपा को दुनिया भर के समाज परिवर्तनकामी बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे थे.
↧
बहुजन समाज के लिए खोटा सिक्का साबित हुईं बहनजी
लखनऊ।
बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम की शिष्या मायावती बहुजन समाज के लिए खोटा सिक्का साबित हुई हैं। बहन जी को जहां बगैर संघर्ष के 2007 में यूपी की सत्ता मिली वहीं धन की तृष्णा से वशीभूत बसपा को बहुजन से सर्वजन में बदल दिया। जिसका खामियाजा यह हुआ कि जैसे-जैसे मायावती का खजाना भरता गया वैसे-वैसे देश और प्रदेश में बसपा का जनाधार तेजी से गिरता गया। साथ ही बहजनी की दलित समाज से दूरी बढ़ती गई। भ्रष्टï व दलाल लोगों से घिरती गई। यह बातें बसपा के बागी नेता और पूर्व कैबिनेट वित्त मंत्री के.के. गौतम ने निष्पक्ष दिव्य संदेश के विशेष संवाददाता राजेन्द्र के.गौतम से एक विशेष साक्षात्कार में कही।
प्रश्न:- आपका बाल, शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन सफर कैसा था?
उत्तर:- मेरा जन्म 4 मई 1958 को इलाहाबाद में हुआ था, 97 वर्षीय पिता बी.दास एक रिटायर्ड शिक्षा अधिकारी हैं, माता श्रीमती दुलारी गृहणी थीं। मेरी प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूल से शुरू हुई थी। हाईस्कूल, इंटरमीडिएट, एलएलबी इलाहाबाद से किया। इसके बाद कुछ समय के लिए वकालत की। समाज सुधारक लल्लई यादव और चौधरी चुन्नी लाल (आरपीआई) की विचारधारा से प्रभावित था। कांशीराम साहब द्वारा शुरू किए गए साप्ताहिक समाचार पत्र बहुजन संगठन से काफी प्रेरणा मिलती थी। इसी प्रेरणा के चलते वर्ष 1980 में प्रतापगढ़ के एक गांव में बाबा साहब की जयंती मनाई थी। जिसको लेकर दबंगों ने मारा-पीटा अपमानित किया।
प्रश्न:- बसपा में किन-किन पदों पर अपने दायित्व का जिम्मेदारी से निर्वाहन किया?
उत्तर:- शुरूआती दौर में 1990 में बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी ने इलाहाबाद नगर उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी थी। इसके बाद जिला प्रभारी, बहुजन सुरक्षा दल जिला प्रभारी, मुख्य जोनल कोआर्डिनेटर, इलाहाबाद कमिशनरी, लखनऊ कमिश्नरी, आजमगढ़ कमिश्नरी, बनारस कमिश्नरी, बस्ती कमिश्नरी, कानपुर कमिश्नरी, झांसी एवं चित्रकूट आदि कमिश्नरी, और मुख्य कोआर्डिनेटर हुआ करता था। 12 साल एमएलसी पार्टी का दल का नेता विधान परिषद, यूपी सरकार में वित्त मंत्री, कैबिनेट कृषि, शिक्षा मंत्री, कार्यवाहक सभापति विधान परिषद उत्तर प्रदेश एवं तमिलनाडू, हिमाचल और बिहार प्रदेश का कोआर्डिनेटर बनाया गया था।
उत्तर:- शुरूआती दौर में 1990 में बसपा संस्थापक मान्यवर कांशीराम जी ने इलाहाबाद नगर उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी थी। इसके बाद जिला प्रभारी, बहुजन सुरक्षा दल जिला प्रभारी, मुख्य जोनल कोआर्डिनेटर, इलाहाबाद कमिशनरी, लखनऊ कमिश्नरी, आजमगढ़ कमिश्नरी, बनारस कमिश्नरी, बस्ती कमिश्नरी, कानपुर कमिश्नरी, झांसी एवं चित्रकूट आदि कमिश्नरी, और मुख्य कोआर्डिनेटर हुआ करता था। 12 साल एमएलसी पार्टी का दल का नेता विधान परिषद, यूपी सरकार में वित्त मंत्री, कैबिनेट कृषि, शिक्षा मंत्री, कार्यवाहक सभापति विधान परिषद उत्तर प्रदेश एवं तमिलनाडू, हिमाचल और बिहार प्रदेश का कोआर्डिनेटर बनाया गया था।
प्रश्न:- बसपा से मोहभंग होने का कारण?
उत्तर:-जब तक मान्यवर कांशीराम जी जीवित रहे, तब तक बसपा में अम्बेडकरी मिशन रहा। 2007 से बसपा की कमान बहनजी के हाथों में आने के बाद से मिशन और नीयत में तेजी से बदलाव आया। मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज की विभिन्न जातियों के जितने भी अम्बेडकर मिशन के नेता तैयार किए थे, उनको निकाल दिया। जिससे मिशन कमजोर हुआ। बसपा सर्वजन से बहुजन में तब्दील हुई। बहुजनों के बजाए बसपा में चमचों और चापलूसों तथा कमाऊ पूतों राज हो गया। हद तक हो गई जब 15 मार्च 2017 को मान्यवर कांशीराम की जयंती के अवसर पर लखनऊ में मात्र 70-80 कार्यकर्ता इक्_ïा हुए। जिससे मन काफी व्यथित हुआ और बसपा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
उत्तर:-जब तक मान्यवर कांशीराम जी जीवित रहे, तब तक बसपा में अम्बेडकरी मिशन रहा। 2007 से बसपा की कमान बहनजी के हाथों में आने के बाद से मिशन और नीयत में तेजी से बदलाव आया। मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज की विभिन्न जातियों के जितने भी अम्बेडकर मिशन के नेता तैयार किए थे, उनको निकाल दिया। जिससे मिशन कमजोर हुआ। बसपा सर्वजन से बहुजन में तब्दील हुई। बहुजनों के बजाए बसपा में चमचों और चापलूसों तथा कमाऊ पूतों राज हो गया। हद तक हो गई जब 15 मार्च 2017 को मान्यवर कांशीराम की जयंती के अवसर पर लखनऊ में मात्र 70-80 कार्यकर्ता इक्_ïा हुए। जिससे मन काफी व्यथित हुआ और बसपा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया।
प्रश्न:- क्या आप मानते हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती दलित हितैषी हैं?
उत्तर:-शुरूआती दौर में बहनजी मन से दलित हितैषी जरूर थी। जैसे-जैसे ही सत्ता का स्वाद चखा, वैसे-वैसे दलित हितों से दूर होती गई। 36 साल से बसपा की सेवा में लगा रहा। मुझे प्रतीत होता है कि दलित हितों के प्रतिकूल जितने भी फैसले हुए हैं वह सब बहनजी के राज में हुए हैं। आपको याद होगा कि 2007 में दलित एक्ट को नाखून विहीन किया गया। दलित समाज के प्रमोशन में आरक्षण की कोर्ट में बेहतर ढंग से पैरवी नहीं की गई। जिसके कारण लाखों दलित कर्मचारियों और अधिकारियों को डिमोट होना पड़ा। यूपी में होने वाले किसी भी दलित उत्पीडऩ के मामले पर न तो कभी निंदा व्यक्त की और न ही विरोध किया। जिसके कारण दलित समाज का आज भी उत्पीडऩ हो रहा है। बहनजी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर इतना घबराती है कि पार्टी और दलित समाज से कोई दूसरे लीडर को पनपने नहीं देती हैं। यही वजह है कि बसपा में मात्र एक ही नेता हैं, बाकी गुलामों की तरह काम कर रहे हैं। जिनको मुंह खोलने की इजाजत नहीं है।
उत्तर:-शुरूआती दौर में बहनजी मन से दलित हितैषी जरूर थी। जैसे-जैसे ही सत्ता का स्वाद चखा, वैसे-वैसे दलित हितों से दूर होती गई। 36 साल से बसपा की सेवा में लगा रहा। मुझे प्रतीत होता है कि दलित हितों के प्रतिकूल जितने भी फैसले हुए हैं वह सब बहनजी के राज में हुए हैं। आपको याद होगा कि 2007 में दलित एक्ट को नाखून विहीन किया गया। दलित समाज के प्रमोशन में आरक्षण की कोर्ट में बेहतर ढंग से पैरवी नहीं की गई। जिसके कारण लाखों दलित कर्मचारियों और अधिकारियों को डिमोट होना पड़ा। यूपी में होने वाले किसी भी दलित उत्पीडऩ के मामले पर न तो कभी निंदा व्यक्त की और न ही विरोध किया। जिसके कारण दलित समाज का आज भी उत्पीडऩ हो रहा है। बहनजी अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर इतना घबराती है कि पार्टी और दलित समाज से कोई दूसरे लीडर को पनपने नहीं देती हैं। यही वजह है कि बसपा में मात्र एक ही नेता हैं, बाकी गुलामों की तरह काम कर रहे हैं। जिनको मुंह खोलने की इजाजत नहीं है।
प्रश्न:- क्या कारण बसपा दलित उत्पीडऩ के मामलों को मुखर तौर से नहीं उठाती है और सड़कों पर संघर्ष के लिए क्यों घबराती?
उत्तर:-जिस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को महलों और राजसी व विलासतापूर्ण जीवन जीने की आदी हो गई हों, जिसने संघर्ष को तिलांजलि दे दी हो, दलित महापुरूषों के संघर्ष के आह्वïान से किनारा कर लिया हो। उससे आप संघर्ष की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। 2007 के बाद से बसपा पूरी तरह से सड़क के संघर्ष से दूर हो चुकी है। जब बसपा सुप्रीमो मायावती पर कोई आरोप लगते हैं, तब मजबूरन संघर्ष के लिए पार्टी को मैदान में उतरना पड़ता है। यही वजह है कि बसपा न तो दलित उत्पीडऩ के मामलों को सड़क से लेकर सदन तक उठाती है और न ही धरना-प्रदर्शन भी नहीं करती है।
उत्तर:-जिस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को महलों और राजसी व विलासतापूर्ण जीवन जीने की आदी हो गई हों, जिसने संघर्ष को तिलांजलि दे दी हो, दलित महापुरूषों के संघर्ष के आह्वïान से किनारा कर लिया हो। उससे आप संघर्ष की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। 2007 के बाद से बसपा पूरी तरह से सड़क के संघर्ष से दूर हो चुकी है। जब बसपा सुप्रीमो मायावती पर कोई आरोप लगते हैं, तब मजबूरन संघर्ष के लिए पार्टी को मैदान में उतरना पड़ता है। यही वजह है कि बसपा न तो दलित उत्पीडऩ के मामलों को सड़क से लेकर सदन तक उठाती है और न ही धरना-प्रदर्शन भी नहीं करती है।
प्रश्न:- बसपा सुप्रीामो मायावती का जनता और बसपा पदाधिकारियों से दूरी बनाए रखने के क्या कारण हैं?
उत्तर:-बसपा के आम कार्यकर्ता और पदाधिकारी से बहनजी न मिलने की पीछे एक मात्र कारण है कि बहनजी को विश्वास है कि दलित समाज उनका ऐसा वोट बैंक है, जो उनको छोड़कर नहीं जाएगा। यही वजह है कि बसपा के पदाधिकारी, विधायक, सांसद महीनों नहीं मिल पाते हैं। अब पार्टी में चंदा लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती से मिलवाने का चलन बढ़ गया है। अगर आपको आसानी से मिलना है तो आप पार्टी के फंड में चंदा जमा कर दें तो आसानी से मिल सकते हैं। जनता से इसलिए नहीं मिलती हैं कि न तो अपना और पार्टी का कोई विजन आम जनमानस के सामने आता है।
उत्तर:-बसपा के आम कार्यकर्ता और पदाधिकारी से बहनजी न मिलने की पीछे एक मात्र कारण है कि बहनजी को विश्वास है कि दलित समाज उनका ऐसा वोट बैंक है, जो उनको छोड़कर नहीं जाएगा। यही वजह है कि बसपा के पदाधिकारी, विधायक, सांसद महीनों नहीं मिल पाते हैं। अब पार्टी में चंदा लेकर बसपा सुप्रीमो मायावती से मिलवाने का चलन बढ़ गया है। अगर आपको आसानी से मिलना है तो आप पार्टी के फंड में चंदा जमा कर दें तो आसानी से मिल सकते हैं। जनता से इसलिए नहीं मिलती हैं कि न तो अपना और पार्टी का कोई विजन आम जनमानस के सामने आता है।
प्रश्न:- आखिर बसपा में मिशनरी और ईमानदार कार्यकर्ता के बजाए धन्ना सेठों को टिकट क्यों दिए जाते हैं?
उत्तर:-यह आम चर्चा है कि बसपा के टिकट बिकते हैं। इस चर्चा को कभी भी बसपा सुप्रीमो मायावती ने अस्वीकार नहीं किया। बसपा में टिकट बिकने की बीमारी 2007 से शुरू हो गई थी। 2017 तक धन संग्रह की बीमारी ने कैंसर का रूप ले लिया। बहनजी द्वारा किए जा रहे धन संग्रह का लाभ बहुजन समाज को न मिलकर उनके भाईयों व उनके परिजनों को मिल रहा है। इसी वजह से बसपा 2017 के आम चुनाव में बुरी तरह से हारी। पैसे के चक्कर में जिताऊ और टिकाऊ व मिशनरी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर सुरक्षित सीटों पर खूब वसूली की गई है। इन तथ्यों को बसपा सुप्रीमो मायावती के सामने वर्ष 2012 और 2017 के विधान सभा चुनावों से पहले वास्तविक स्थिति को बताया था। जिसका बसपा को इन चुनावों में खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। लेकिन इस ईमानदारी की सजा तमिलनाडू और बिहार राज्य में भेजकर मिली।
उत्तर:-यह आम चर्चा है कि बसपा के टिकट बिकते हैं। इस चर्चा को कभी भी बसपा सुप्रीमो मायावती ने अस्वीकार नहीं किया। बसपा में टिकट बिकने की बीमारी 2007 से शुरू हो गई थी। 2017 तक धन संग्रह की बीमारी ने कैंसर का रूप ले लिया। बहनजी द्वारा किए जा रहे धन संग्रह का लाभ बहुजन समाज को न मिलकर उनके भाईयों व उनके परिजनों को मिल रहा है। इसी वजह से बसपा 2017 के आम चुनाव में बुरी तरह से हारी। पैसे के चक्कर में जिताऊ और टिकाऊ व मिशनरी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर सुरक्षित सीटों पर खूब वसूली की गई है। इन तथ्यों को बसपा सुप्रीमो मायावती के सामने वर्ष 2012 और 2017 के विधान सभा चुनावों से पहले वास्तविक स्थिति को बताया था। जिसका बसपा को इन चुनावों में खामियाजा भी भुगतना पड़ा था। लेकिन इस ईमानदारी की सजा तमिलनाडू और बिहार राज्य में भेजकर मिली।
प्रश्न:- राजनीतिक तौर पर बसपा के कमजोर होने के क्या कारण हैं?
उत्तर:- मान्यवर कांशीराज के परिनिर्वाण के बाद से बीएसपी में जब से बहन मायावती ने पार्टी संभाली, तबसे बहन जी अपना (एजेंडा) लागू करने लगी। कांशीराम साहेब के बताए गये रास्ते से हटकर जनशक्ति को छोड़ते हुए धनशक्ति को अपनाने लगी। जिसके फलस्वरूप बसपा देश के 12 राज्यों में विधायक थे। आज सब खत्म हो गया। चार राज्यों में एमपी हुआ करते थे। सब समाप्त हो गया। कांशीराम ने बड़े संघर्ष और त्याग के कारण बसपा को राष्टï्रीय पार्टी का दर्जा दिलवाया था, जो बहजनी की गलत नीतियों के कारण अब समाप्ति की ओर है।
उत्तर:- मान्यवर कांशीराज के परिनिर्वाण के बाद से बीएसपी में जब से बहन मायावती ने पार्टी संभाली, तबसे बहन जी अपना (एजेंडा) लागू करने लगी। कांशीराम साहेब के बताए गये रास्ते से हटकर जनशक्ति को छोड़ते हुए धनशक्ति को अपनाने लगी। जिसके फलस्वरूप बसपा देश के 12 राज्यों में विधायक थे। आज सब खत्म हो गया। चार राज्यों में एमपी हुआ करते थे। सब समाप्त हो गया। कांशीराम ने बड़े संघर्ष और त्याग के कारण बसपा को राष्टï्रीय पार्टी का दर्जा दिलवाया था, जो बहजनी की गलत नीतियों के कारण अब समाप्ति की ओर है।
प्रश्न:- बसपा की करारी हार के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?
उत्तर:-बसपा की इस हार के लिए पूरी तरह से बहनजी जिम्मेदार हैं। ईवीएम का विरोध मात्र दलित समाज और पैसे लेकर टिकट पाने वाले प्रत्याशियों का ध्यान बांटने के लिए किया जा रहा है। जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि बसपा सुप्रीमो मायावती की शह पर कुछ चापलूस पदाधिकारियों ने टिकट बिकवाने में अहम भूमिका निभाई। जिनका खुलासा बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर चारबाग स्थिति रवीन्द्रालय में आयोजित एक राज्य स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन में किया जाएगा।
उत्तर:-बसपा की इस हार के लिए पूरी तरह से बहनजी जिम्मेदार हैं। ईवीएम का विरोध मात्र दलित समाज और पैसे लेकर टिकट पाने वाले प्रत्याशियों का ध्यान बांटने के लिए किया जा रहा है। जबकि वास्तविक स्थिति यह है कि बसपा सुप्रीमो मायावती की शह पर कुछ चापलूस पदाधिकारियों ने टिकट बिकवाने में अहम भूमिका निभाई। जिनका खुलासा बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर जयंती की पूर्व संध्या पर चारबाग स्थिति रवीन्द्रालय में आयोजित एक राज्य स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन में किया जाएगा।
प्रश्न:- भविष्य की क्या योजना है?
उत्तर:-बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर और मान्यवर कांशीराम जी के मिशन को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया है। मिशन सुरक्षा परिषद का गठन किया गया है। अभी इसके तहत दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज को जोड़ कर व रायशुमारी कर बसपा का विकल्प बनने के लिए एक राजनीतिक दल का गठन करने की तैयारी है।
-पूर्व कैबिनेट वित्त मंत्री के.के. गौतम
उत्तर:-बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर और मान्यवर कांशीराम जी के मिशन को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया है। मिशन सुरक्षा परिषद का गठन किया गया है। अभी इसके तहत दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज को जोड़ कर व रायशुमारी कर बसपा का विकल्प बनने के लिए एक राजनीतिक दल का गठन करने की तैयारी है।
-पूर्व कैबिनेट वित्त मंत्री के.के. गौतम
↧
↧
जब वे एक साथ होंगे !
(बीजेपी की जीत से आहत सपा बसपा एक साथ आने की सोच रही है जबकि वैचारिक रूप से इन दलों का आंतरिक सेतु तोड़ने का जो महँ काम किया है इनके नेताओं ने वह भरना बहुत आसान नहीं है , मीडिआ अपने पुरे सवाब पर है जिसे हम इस तरह देख सकते हैं की इनके बीच जिस तरह के जहर का समावेश इन्होने किया है वह बहुत ही पीड़ा दायक है )
आजकल यह चर्चा बहुत जोरों पर है कि मायावती जी और अखिलेश जी एक साथ आ रहे हैं । वैसे तो इस विचार का स्वागत करने वाले लोग आजकल भाजपा में चले गए हैं । और भाजपा तो उनके सपनों की पार्टी थी ही लेकिन जब तक वे सपा बसपा का विनाश नहीं कर लिए तब तक वे वहीँ जमे रहे । अब सामाजिक सरोकारों को एक सतह पर लाने के लिए जिस तरह से वह उनको मजबूत करने के लिए अखिलेश और मायावती को एक साथ लाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं ? और जैसा की योगी जी का भी मानना है कि वह उनके प्रभाव के कारण ही एक साथ आ रहे हैं?
अब देखना यह है कि एक साथ आकर यह क्या जनता को बताते हैं ? क्योंकि इन्होंने अपने कार्यकाल में उसी जनता का सबसे ज्यादा नुकसान किया है जिसकी वजह से यह नेता बने थे और उसी जनता ने इन्हें नकार दिया है! फिर भी यह देखना है कि इनके पास सामाजिक न्याय का कोई मुद्दा बचा है क्या ? क्यों कि यह सवर्णों के लिए बेहद बेचैन रहे है ? और अगर यह है तो वह क्या है या केवल सत्ता के लिए साझा हो रहा है या कोई मुद्दे भी यहां हैं। यदि ऐसा है तो यह अपने मिशन में कितने सफल हो पाएंगे उस पर बहुत कुछ अभी से नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि उनका यह समझौता समाज के लिए ना होकर क्या इनके अपने निजी स्वार्थ के लिए ज्यादा नजर आ रहा है ?
क्योंकि इन्होंने सत्ता में रहते हुए इस तरह के समझौतों पर कभी विचार ही नहीं किया बल्कि उल्टे एक दूसरे पर प्रहार ही किया है । यह तो भला हो जनता का कि वह इनके इस मंसूबे के साथ एक साथ आने पर इनके लिए एक साथ खड़ी हो जाए और इनसे पूछें कि क्या आपको सामाजिक न्याय की कोई समझ है और अगर समझ है तो आरक्षण पर आप कहां कहां खड़े हुए हैं!
यह निश्चित जानिए कि यदि आरक्षण के मामले पर और सामाजिक न्याय के तमाम सवालों पर आप का ज्ञान नहीं है। तो जनता आपके झांसे में अब दुबारा आने वाली नहीं है इसलिए आपका यह मेल मिलाप केवल और केवल भाजपा के कल्पनातीत बहुमत का भय ही है जो इनको एक साथ खड़ा कर रहा है ।
खुदा न खाश्ता यह एक साथ आकर अगर जीत भी गए तो इनके सलाहकार वही 15 फीसदी लोग होंगे और वह सामाजिक न्याय की सारी शक्तियों का बड़ा नुकसान करायेंगे।
डॉ.लाल रत्नाकर
↧
चंद्रजीत यादव एक चिंतक
Tenth Lok sabha |
Members BioprofileYADAV, SHRI CHANDRAJIT [J.D. - Azamgarh (Uttar Pradesh)] |
![]() | Father's NameDate of Birth Place of Birth Marital Status Spouse's Name Children Educational Qualifications Profession Permanent Address Present AddressPositions held 1957-67 1967 1971-74 1971 1974-77 1980 1991 Other Positions held Social and Cultural Activities Special Interests Favourite Pastime and Recreation Sports and Clubs Countries visited | Shri Ishwari Prasad Yadav1st January, 1930 Savupaha in Distt. Azamgarh (Uttar Pradesh) Married in 1949 Smt. Asha Yadav One son M.A., LL.B. Educated at S.K.P. College, Azamgarh; Banaras Hindu University, Varanasi and Lucknow University, Lucknow (Uttar Pradesh) Lawyer Mohalla Hari Bansh Pura, Azamgarh (Uttar Pradesh) 78, North Avenue, New Delhi-110001. Tel. 3017214 Member, Uttar Pradesh Legislative Assembly Deputy Leader, C.P.I. Group, Uttar Pradesh State Legislature Elected to Lok Sabha (Fourth) General Secretary, A.I.C.C. Re-elected to Lok Sabha (Fifth) Union Minister, Steel and Mines Elected to Lok Sabha (Eighth) for the third time Member, Committee on Government Assurances Elected to Lok Sabha (Tenth) for the fourth time Chairman, Public Accounts Committee President, Indo-G.D.R. Friendship Society, Uttar Pradesh; National Committee on Aid for Democratic Republic of Vietnam; Vice-President, Afro-Asian Peace and Solidarity Committee; General Secretary, U.P. Kisan Sabha; President, All India Peace and Solidarity Organisation; Vice-President, Indo-Soviet Cultural Society; Member, Presidium of the World Peace Council; Vice-President, Asian Solidarity Organisation; Chairman, W.P.C. Asia Committee Reading biographies and poetry Gardening and swimming Cricket Widely travelled. |
↧
एकात्म मानवतावाद
कुछ विद्वान मित्रों का मानना है कि भाजपा की तरफ आम लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है और वह इसलिए कि उन लोगों के मन में उनमें हिंदू होने का मुख्य केंद्र में ही आकर्षण दिख रहा है जिससे उनका रुझान उधर बढ़ा है।(विशेष रूप से गैर यादव पिछड़े और गैर जाटव (चमार) दलित में)यहाँ यह दृष्टव्य है की ई वी एम प्रसंग भी बहुत कुछ इसके लिए जिम्मेदार है फिर भी बाकी संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है जिसमें प्रचंड बहुमत की सत्ता का मुख्य केंद्र कुछ सवर्ण जातियों के इर्द गिर्द घूम रहा है यहाँ अति दलित और अति पिछड़े लगभग नदारद हैं। आजकल उत्तर प्रदेश में नई सरकार अपनी तरह के अधिकारियों को लगाने में व्यस्त है अब यह सारी व्यवस्था किस आधार पर की जा रही है इसका लेखा-जोखा तो कुछ दिनों के बाद ही पता चलेगा क्योंकि जब सरकारी आती हैं तो वह ढूंढ ढूंढ करके अपने चहेतों को पूरे प्रदेश भर में तैनात कर देती हैं।यही काम पिछली सरकार ने भी किया होगा और पूरे 5 साल तक इस तरह की व्यवस्था में वह व्यस्त रही कि किस अधिकारी को कहां लगाया जाए। इस सरकार में और उस सरकार में फर्क इतना है कि यहां पर एक बहुत ही मजे हुए सन्यासी और राजनीतिज्ञ का नजरिया है दूसरी तरफ अनुभवहीन और अवसरवादी नेता पुत्र का उत्साह था यद्यपि इस समय राजनीतिक गलियारों में यह बहस का मुद्दा नहीं है ।अब यह कैसे तय हो कि जिस झूठ फरेब और प्रोफगंडे से भारतीय राजनीति के समकालीन दौर में प्रदेशों और छोटी छोटी इकाइयों तक इसी तरह का पाखंड प्रबल हो रहा है उसका क्या उपाय है कि 5 सालों बाद कौन आ रहा है, मुख्य मुद्दा तो यह है कि इन 5 वर्षों तक प्रदेश की बदहाली या खुशहाली किस रूप में आने जा रही है, मौजूदा सरकार ने तमाम राजनेताओं की जन्मतिथि यों पर होने वाली छुट्टियों को समाप्त कर दिया है इससे हर पढ़ा लिखा आदमी खुश तो है, इन छुट्टियों के खत्म किए जाने से उनके बारे में लोग जल्दी भूल जाएंगे जिन्हें साल भर छुट्टियों के नाम पर लोग गालियां देते फिरते थे कि इन्होंने क्या किया है देश के लिए ।मुझे बहुत आशंका है कि प्रदेश में छुट्टियां बहुत हो गई थी और तमाम ऐसे वैसे लोगों के नाम पर हो गई थी जिनमें बहुत कम लोग राष्ट्रवादी थे या यह कहा जाए की दलित और पिछड़े भी थे उनके लिए प्रदेश में छुट्टियां हो यह एक तबका कैसे बर्दाश्त कर सकता है इसलिए उनका खत्म किया जाना अनिवार्य है प्रतीत हो रहा था, आने वाले दिनों में अगर राष्ट्रवादियों के नाम पर उनके पर्व और उत्सव मनाए जाएंगे तो छुट्टियां तो करनी पड़ेगी।इतनी छुट्टियों के साथ ही और छुट्टियां जुड़ी और इन छुट्टियों के साथ उनकी छुट्टियां जुड़ती तो बहुत सारी छुट्टियां हो जाती इसलिए जरूरी था कि पहले पुरानी छुट्टियों को खत्म किया जाए ताकि नई छुट्टियां करने में सुविधा हो। और दलित और पिछड़े तथा अल्पसंख्यकों के नाम पर कोई छुट्टी हो यह मौजूदा राष्ट्रवाद को कैसे बर्दाश्त हो सकता है।मेरा मानना है कि जो लोग सत्ता में आए हैं वह प्रचार प्रसार और प्रोपगंडा में बहुत विश्वास करते हैं यहां तक कि इनकी पुरानी सरकार थी तब इन्होंने शाइनिंग इंडिया नाम का प्रचार अभियान शुरू किया था ठीक उसी तरह से जैसे पिछली सरकार ने विकास के नाम पर जनता का वोट लेना चाहा था ।धर्म तो वही रहेगा लेकिन उसमें नए दर्शन का समावेश किया जाना है जिसके समावेश से दुनिया में फैले समाजवाद को कैसे ब्राह्मणवाद निकलेगा उसके विभिन्न सारे रास्ते तलाशे जा रहे हैं और इसी तलाश में जारी है दीनदयाल उपाध्याय का एकात्मवाद यह एक तरह का नव ब्राह्मणवाद है जिस में घुमा-फिरा करके यह बताने की कोशिश की गई है कि किस तरह से भारतीय दर्शन को माननीय से पूरी दुनिया से आई हुई समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा के मूल को तहस-नहस करना और नव ब्राह्मणवाद फैलाना यह सिद्धांत मूलतः इस अंधभक्त देश में बहुत आसानी से आध्यात्म और धर्म के नाम पर फैलाया जा सकेगा जिससे कि कोई सत्ता की तरफ देखने की हिम्मत न करें और साधु संत मध्यकाल की तरफ इस देश को ले जाने का पूरा इंतजाम करें और सारा विकास उनके इर्द-गिर्द हो यही नव एकात्मवाद होगा ऐसी संभावना दिख रही है।
एकात्म-(वाद) मानवतावाद, पर परिचर्चा ही भारतीय संविधान की मूल अवधारणा को विवादित करने के उद्देश्य को हवा देती है, जिन महानुभावों को भारत के संविधान में आस्था नहीं है वे अपने अलग तरह विचार लेकर भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हैं और सांस्कृतिक समाजवाद को बढ़ावा देते हुए संविधान के मूल तत्वों से सामन्यजन का ध्यान हटाते है। - डॉ.लाल रत्नाकर)पं. दीनदयाल उपाध्याय : भारतीय संस्कृति और एकात्म मानव दर्शन
कुछ विद्वान मित्रों का मानना है कि भाजपा की तरफ आम लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है और वह इसलिए कि उन लोगों के मन में उनमें हिंदू होने का मुख्य केंद्र में ही आकर्षण दिख रहा है जिससे उनका रुझान उधर बढ़ा है।(विशेष रूप से गैर यादव पिछड़े और गैर जाटव (चमार) दलित में)
यहाँ यह दृष्टव्य है की ई वी एम प्रसंग भी बहुत कुछ इसके लिए जिम्मेदार है फिर भी बाकी संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है जिसमें प्रचंड बहुमत की सत्ता का मुख्य केंद्र कुछ सवर्ण जातियों के इर्द गिर्द घूम रहा है यहाँ अति दलित और अति पिछड़े लगभग नदारद हैं।
आजकल उत्तर प्रदेश में नई सरकार अपनी तरह के अधिकारियों को लगाने में व्यस्त है अब यह सारी व्यवस्था किस आधार पर की जा रही है इसका लेखा-जोखा तो कुछ दिनों के बाद ही पता चलेगा क्योंकि जब सरकारी आती हैं तो वह ढूंढ ढूंढ करके अपने चहेतों को पूरे प्रदेश भर में तैनात कर देती हैं।
यही काम पिछली सरकार ने भी किया होगा और पूरे 5 साल तक इस तरह की व्यवस्था में वह व्यस्त रही कि किस अधिकारी को कहां लगाया जाए। इस सरकार में और उस सरकार में फर्क इतना है कि यहां पर एक बहुत ही मजे हुए सन्यासी और राजनीतिज्ञ का नजरिया है दूसरी तरफ अनुभवहीन और अवसरवादी नेता पुत्र का उत्साह था यद्यपि इस समय राजनीतिक गलियारों में यह बहस का मुद्दा नहीं है ।
अब यह कैसे तय हो कि जिस झूठ फरेब और प्रोफगंडे से भारतीय राजनीति के समकालीन दौर में प्रदेशों और छोटी छोटी इकाइयों तक इसी तरह का पाखंड प्रबल हो रहा है उसका क्या उपाय है कि 5 सालों बाद कौन आ रहा है, मुख्य मुद्दा तो यह है कि इन 5 वर्षों तक प्रदेश की बदहाली या खुशहाली किस रूप में आने जा रही है, मौजूदा सरकार ने तमाम राजनेताओं की जन्मतिथि यों पर होने वाली छुट्टियों को समाप्त कर दिया है इससे हर पढ़ा लिखा आदमी खुश तो है, इन छुट्टियों के खत्म किए जाने से उनके बारे में लोग जल्दी भूल जाएंगे जिन्हें साल भर छुट्टियों के नाम पर लोग गालियां देते फिरते थे कि इन्होंने क्या किया है देश के लिए ।
मुझे बहुत आशंका है कि प्रदेश में छुट्टियां बहुत हो गई थी और तमाम ऐसे वैसे लोगों के नाम पर हो गई थी जिनमें बहुत कम लोग राष्ट्रवादी थे या यह कहा जाए की दलित और पिछड़े भी थे उनके लिए प्रदेश में छुट्टियां हो यह एक तबका कैसे बर्दाश्त कर सकता है इसलिए उनका खत्म किया जाना अनिवार्य है प्रतीत हो रहा था, आने वाले दिनों में अगर राष्ट्रवादियों के नाम पर उनके पर्व और उत्सव मनाए जाएंगे तो छुट्टियां तो करनी पड़ेगी।
इतनी छुट्टियों के साथ ही और छुट्टियां जुड़ी और इन छुट्टियों के साथ उनकी छुट्टियां जुड़ती तो बहुत सारी छुट्टियां हो जाती इसलिए जरूरी था कि पहले पुरानी छुट्टियों को खत्म किया जाए ताकि नई छुट्टियां करने में सुविधा हो। और दलित और पिछड़े तथा अल्पसंख्यकों के नाम पर कोई छुट्टी हो यह मौजूदा राष्ट्रवाद को कैसे बर्दाश्त हो सकता है।
मेरा मानना है कि जो लोग सत्ता में आए हैं वह प्रचार प्रसार और प्रोपगंडा में बहुत विश्वास करते हैं यहां तक कि इनकी पुरानी सरकार थी तब इन्होंने शाइनिंग इंडिया नाम का प्रचार अभियान शुरू किया था ठीक उसी तरह से जैसे पिछली सरकार ने विकास के नाम पर जनता का वोट लेना चाहा था ।
धर्म तो वही रहेगा लेकिन उसमें नए दर्शन का समावेश किया जाना है जिसके समावेश से दुनिया में फैले समाजवाद को कैसे ब्राह्मणवाद निकलेगा उसके विभिन्न सारे रास्ते तलाशे जा रहे हैं और इसी तलाश में जारी है दीनदयाल उपाध्याय का एकात्मवाद यह एक तरह का नव ब्राह्मणवाद है जिस में घुमा-फिरा करके यह बताने की कोशिश की गई है कि किस तरह से भारतीय दर्शन को माननीय से पूरी दुनिया से आई हुई समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा के मूल को तहस-नहस करना और नव ब्राह्मणवाद फैलाना यह सिद्धांत मूलतः इस अंधभक्त देश में बहुत आसानी से आध्यात्म और धर्म के नाम पर फैलाया जा सकेगा जिससे कि कोई सत्ता की तरफ देखने की हिम्मत न करें और साधु संत मध्यकाल की तरफ इस देश को ले जाने का पूरा इंतजाम करें और सारा विकास उनके इर्द-गिर्द हो यही नव एकात्मवाद होगा ऐसी संभावना दिख रही है।
एकात्म-(वाद) मानवतावाद, पर परिचर्चा ही भारतीय संविधान की मूल अवधारणा को विवादित करने के उद्देश्य को हवा देती है, जिन महानुभावों को भारत के संविधान में आस्था नहीं है वे अपने अलग तरह विचार लेकर भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हैं और सांस्कृतिक समाजवाद को बढ़ावा देते हुए संविधान के मूल तत्वों से सामन्यजन का ध्यान हटाते है। - डॉ.लाल रत्नाकर)
पं. दीनदयाल उपाध्याय : भारतीय संस्कृति और एकात्म मानव दर्शन
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति व समाज ''स्वदेश व स्वधर्म''तथा परम्परा व संस्कृति''जैसे गूढ़ विषय का अध्ययन, चिंतन व मनन कर उसे एक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया। ...
अशोक बजाज पं. दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति व समाज ''स्वदेश व स्वधर्म''तथा परम्परा व संस्कृति''जैसे गूढ़ विषय का अध्ययन, चिंतन व मनन कर उसे एक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
उन्होंने देश की राजनैतिक व्यवस्था व अर्थतंत्र का भी गहन अध्ययन कर शुक्र, वृहस्पति, और चाणक्य की भांति आधुनिक राजनीति को शुचि व शुध्दता के धरातल पर खड़ा करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति समाज व सृष्टि का ही नहीं अपितु मानव के मन, बुध्दि, आत्मा और शरीर का समुचय है। उनके इसी विचार व दर्शन को ''एकात्म मानववाद''का नाम दिया गया, जिसे अब एकात्म मानव-दर्शन के रूप में जाना जाता है। एकात्म मानव-दर्शन राष्ट्रत्व के दो पारिभाषित लक्षणों को पुनर्जीवित करता है, जिन्हें ''चिति '' (राष्ट्र की आत्मा) और ''विराट'' (वह शक्ति जो राष्ट्र को ऊर्जा प्रदान करता है) कहते हैं।मूल समस्या: स्व के प्रति दुर्लक्ष्यआजादी के बाद देश की राजनैतिक दिशा स्पष्ट नहीं थी क्योंकि आजादी के आंदोलन के समय इस विषय पर बहुत च्यादा चिन्तन नहीं हुआ था। अंग्रेजी शासनकाल में सबका लक्ष्य एक था ''स्वराज''लाना लेकिन स्वराज के बाद हमारा रूप क्या होगा? हम किस दिशा में आगे बढेंग़े? इस बात का ज्यादा विचार ही नहीं हुआ। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में कहा था कि हमें ''स्व'' का विचार करना आवश्यक है। बिना उसके स्वराय का कोई अर्थ नहीं। केवल स्वतंत्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती। जब तक कि हमें अपनी असलियत का पता नहीं होगा तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है। परतंत्रता में समाज का ''स्व''दब जाता है। इसीलिए लोग राष्ट्र के स्वराय की कामना करते हैं, जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें। प्रकृति बलवती होती है। उसके प्रतिकूल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से कष्ट होते हैं। प्रकृति का उन्नयन कर उसे संस्कृति बनाया जा सकता है, पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। आधुनिक मनोविज्ञान बताता है कि किस प्रकार मानव-प्रकृति एवं भावों की अवहेलना से व्यक्ति के जीवन में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति प्राय: उदासीन एवं अनमना रहता है। उसकी कर्म-शक्ति क्षीण हो जाती है अथवा विकृत होकर विपथगामिनी बन जाती है। व्यक्ति के समान राष्ट्र भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने पर अनेक व्यथाओं का शिकार बनता है। आज भारत की अनेक समस्याओं का यही कारण है। नैतिक पतन एवं अवसरवादिताराष्ट्र का मार्गदर्शन करने वाले तथा राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश व्यक्ति इस प्रश्न की ओर उदासीन हैं। फलत: भारत की राजनीति, अवसरवादी एवं सिद्वांतहीन व्यक्तियों का अखाड़ा बन गई है। राजनीतिज्ञों तथा राजनीतिक दलों के न कोई सिद्वांत एवं आदर्श हैं और न कोई आचार-संहिता। एक दल छोड़कर दूसरे दल में जाने में व्यक्ति को कोई संकोच नहीं होता। दलों के विघटन अथवा विभिन्न दलों में गठबंधन किसी तात्विक मतभेद अथवा समानता के आधार पर नहीं अपितु उसके मूल में चुनाव और पद ही प्र्रमुख रूप से रहते हैं। अब राजनीतिक क्षेत्र में पूर्ण स्वेच्छाचारिता है। इसी का परिणाम है कि आज भी सभी के विषय में जनता के मन में समान रूप से अनास्था है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं कि जिसकी आचरणहीनता के विषय में कुछ कहा जाए तो जनता विश्वास न करे। इस स्थिति को बदलना होगा। बिना उसके समाज में व्यवस्था और एकता स्थापित नहीं की जा सकती। भारतीय संस्कृति एकात्मवादीराष्ट्रीय दृष्टि से तो हमें अपनी संस्कृति का विचार करना ही होगा, क्योंकि वह हमारी अपनी प्रकृति है। स्वराय का स्व-संस्कृति से घनिष्ठ संबंध रहता है। संस्कृति का विचार न रहा तो स्वराज की लड़ाई स्वार्थी व पदलोलुप लोगों की एक राजनीतिक लड़ाई मात्र रह जायेगी। स्वराय तभी साकार और सार्थक होगा जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन सकेगा। इस अभिव्यक्ति में हमारा विकास भी होगा और हमें आनंद की अनुभूति भी होगी। अत: राष्ट्रीय और मानवीय दृष्टियों से आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों का विचार करें। भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का, संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं। व्यक्ति के सुख का विचार सम्पूर्ण समाज या सृष्टि का ही नहीं, व्यक्ति का भी हमने एकात्म एवं संकलित विचार किया है। सामान्यत: व्यक्ति का विचार उसके शरीर मात्र के साथ किया जाता है। शरीर सुख को ही लोग सुख समझते हैं, किन्तु हम जानते हैं कि मन में चिंता रही तो शरीर सुख नहीं रहता। प्रत्येक व्यक्ति शरीर का सुख चाहता है। किन्तु किसी को जेल में डाल दिया जाए और खूब अच्छा खाने को दिया जाए तो उसे सुख होगा क्या? आनंद होगा क्या? इसी प्रकार बुद्वि का भी सुख है। इसके सुख का भी विचार करना पड़ता है। क्योंकि यदि मन का सुख हुआ भी और आपको बड़े प्रेम से रखा भी तथा आपको खाने-पीने को भी खूब दिया, परंतु यदि दिमाग में कोई उलझन बैठी रही तो वैसी हालत होती है, जैसे पागल की हो जाती है। पागल क्या होता है? उसे खाने को खूब मिलता है, हष्ट-पुष्ट भी हो जाता है, बाकी भी सुविधाएं होती हैं। परंतु दिमाग की उलझनों के कारण बुद्वि का सुख प्राप्त नहीं होता। बुद्वि में तो शांति चाहिए। इन बातों का हमें विचार करना पड़ेगा।
↧
न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए १५ मार्च से शुरू हो रहे बीडीएम् के अभियान का पम्फ्लेट्स-दुसाध
↧
↧
आदरणीय नेता जी
आदरणीय नेता जी
आपके जन्मदिन की शुभ कामनाओं के रिटर्न गिफ्ट के रूप में आपसे आग्रहितः श्री चन्द्रभूषण सिंह यादव जी के पत्र के समर्थन में:-जहाँ तक मैं आपको जानता हूँ आप हमेशा इस बात का ध्यान रखते रहे हैं पर जब पिछड़ों के आपके समर्थक लूट में मशगूल होंगे तो आपसे नीति के बात नहीं करेंगे ऐसा मुझे एहसास है पर मैं जानता हूँ यदि आपसे समाज के सुधि लोग मिलें और निचे लिखी बातों को तथ्यात्मक तरीके से रखें तो आप उन्हें अक्षरसः उसका अनुपालन कराएंगे, ऐसा मेरा विश्वास है.
इसी विश्वास को पुख्ता करने के लिए आपसे आग्रह है की आप इनका अनपालन अवश्य कराएंगे।
सादर
आपका
डा. लाल रत्नाकर
(आज माननीय श्री मुलायम सिंह यादव जी का 76 वाँ ज दिन है। नेताजी को जन्म दिन की बधाई एवं चिरायु,शतायु और स्वस्थ जीवन की कामना।
आज नेताजी अपना जन्मदिन मना रहे हैं और ऐसी परम्परा है कि जन्म दिन पर उपहार या दान बांटा जाता है। मै एक पिछड़े वर्ग का नागरिक होने के कारण नेताजी से पिछड़ों के लिए उनके जन्मदिन पर एक याचक बनकर कुछ मांगना चाहता हूँ-)
आदरणीय नेताजी।
सादर अभिवादन।
आपके स्वस्थ दीर्घ जीवन की कामना के साथ अनुरोध है कि हमारी शरीर अजर-अमर नही है अपितु हमारे विचार और कार्य अजर-अमर हैं।सत्ता चिरस्थायी न होती है और न हमारे यश-कीर्ति को चिर स्थायी बनाती है। हम चिर स्थायी अपने कार्यो और बिचारो से बनते हैं।
नेताजी!
सत्ता रहने पर बहुत सारे स्वार्थी लोग जय-जयकार करते दीखते हैं पर सत्ता खत्म होते ही वे पुनः नई सत्ता प्रमुख का जय-जयकार करते दीखते हैं। हम इन क्षणभंगुर समर्थको के मोहपाश में बंधकर अगर अपने वर्गीय हित को चोट पहुंचाते हैं तो निश्चय ही हमे आने वाली पीढियां माफ़ नही करेंगी तथा हमारा इतिहास नही बनेगा।
नेताजी!
सत्ता रहने पर बहुत सारे स्वार्थी लोग जय-जयकार करते दीखते हैं पर सत्ता खत्म होते ही वे पुनः नई सत्ता प्रमुख का जय-जयकार करते दीखते हैं। हम इन क्षणभंगुर समर्थको के मोहपाश में बंधकर अगर अपने वर्गीय हित को चोट पहुंचाते हैं तो निश्चय ही हमे आने वाली पीढियां माफ़ नही करेंगी तथा हमारा इतिहास नही बनेगा।
नेताजी!
गाँधी,अम्बेडकर,लोहिया,हेडगेवार,सावरकर,दीनदयाल उपाध्याय,फुले,पेरियार,गाडगे,शाहूजी महाराज,कबीर,नानक आदि अन्यान्य लोग कभी सत्ता में नही रहे पर अपने निश्चित विचारो के कारण अमर हैं। वी पी सिंह,कर्पूरी ठाकुर,रामनरेश यादव एवं मंडल साहब को पिछड़ा तब तक याद रखेगा जबतक आरक्षण रहेगा और वह उसका लाभ पाता रहेगा जबकि इन लोगों को बहुत गलियां खानी पड़ी हैं।
आदरणीय नेताजी!
आज उत्तर प्रदेश की सत्ता आपके हाथों में है। यदि आप चाहे तो अमर भी हो सकते हैं और पिछड़े-वंचित लोगो का कल्याण भी कर सकते हैं। आज इतिहास पुरुष बनने का अवसर आपके दरवाजे खड़ा है, बस उसे दिशा देने की जरूरत है।
नेताजी!
देश का पिछड़ा नेतृत्व विहीन है। यदि आपने मंडल साहब की सिफ़ारिशो के मुताबिक पिछड़ों के लिए सम्पूर्ण शिक्षा मुफ्त कर उनके छात्रावास,भोजन,वस्त्र,किताब,वजीफा और कोचिंग का इंतजाम कर दिया तो तय मानिये मोदी का हिंदुत्व एजेंडा चकनाचूर हो जायेगा और सम्पूर्ण (हिन्दू-मुस्लिम) पिछड़ा अगले पांच वर्ष में सडकों पर डाक्टर,इंजीनियर,प्रोफेसर,कलक्टर,कप्तान आदि के रूप में नजर आएगा।
नेताजी
मंडल साहब ने अपनी सिफारिशों में यह भी कहा है कि प्रोन्नति में आरक्षण ग्राह्य बनाया जाय तथा प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण दिया जाय।
नेताजी!
यदि यह अनुशंसा लागू हो गयी तो हमारा भूल सुधार भी हो जायेगा और पिछड़ों का उद्धार भी।
नेताजी!
सभी ठेकों में पिछड़े-दलितों को आरक्षण देने के साथ जातिवार जन गड़ना व महिला आरक्षण में पिछड़े-दलित महिलाओं को आरक्षण की मांग को इशू बनाके सपा प्रदेश में अभियान छेड़ दे तो देखिएगा मोदी साहब का हिंदुत्व केवल अभिजात्य वर्गों में सिमट के रह जायेगा।
नेताजी!
कहावत है कि"आधी छोड़ पूरी पर धावे,आधी मिले न पूरी पावे",हमारा आधार पिछड़ा है,सोशलिस्टों का प्राण पिछड़ा है और पिछडो की अपेक्षा आप और समाजवाद से है इसलिए मृग मरीचिका में जीने की बजाय यथार्थ समझना चाहिए और पिछले लोकसभा और नगर पालिका,नगर निगम आदि के चुनाव परिणामो को देखकर समझना चाहिए कि अभिजात्य वर्ग कभी भी हमे स्वीकार नही करता है इसलिए हमे भ्रम में पड़े बिना सम्पूर्ण पिछड़े समाज के हित में कार्य करने का संकल्प लेना चाहिए।
नेताजी!
यदि आज जन्म दिन पर ऐसा कोई संकल्प पिछडो के हित में आपने ले लिया तो निश्चय मानिये कि आप इतिहास में अमर भी हो जायेंगे और आगे सत्ता की राह भी आसान हो जाएगी तथा पिछड़े कुछ पा भी जायेंगे लेकिन तय मानिये यदि वर्तमान स्थिति में अपेक्षित सुधार नही हुआ तो पिछड़े दुर्दशाग्रस्त तो रहेंगे ही,इतिहास आपको भी माफ़ नही करेगा और जब भविष्य में पिछडो के प्रति आपकी भूमिका की समीक्षा होगी तो समीक्षक आपके प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण रखेंगे इसलिए अपना इतिहास बनाइए और इतिहास हो चुके पिछड़ों का भविष्य।
नेताजी!
उम्मीद है मेरी बात आप तक पहुंचेगी और और आप इस दिशा में सोचेंगे। यदि मेरी राय गलत लगे तो क्षमा करेंगे।
एक बार फिर जन्म दिन की बधाई और आपके शतायु होने की कामना।
सादर।
आपका शुभचिंतक-
चन्द्रभूषण सिंह यादव
↧
सच्ची रामायण
↧
न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए १५ मार्च से शुरू हो रहे बीडीएम् के अभियान का पम्फ्लेट्स-दुसाध
↧
शहीद दिवस पर
शहीद दिवस पर :
डॉ.लाल रत्नाकर
यह झलक है आगामी मनुस्मृतिवाद का और इसके लिए जिम्मेदार हैं इस देश के दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक और उनके नेता, नेताओं के चट्टू और उनके समर्थक जिन्होंने झूठे, फर्जी, पिछड़े और गपबाज ठग को समझने में गहरी नासमझी दिखायी है। राजनीतिक ठगी का जो दौर हमने देखा है वह संभवत: मध्यकाल में भी किसी ने नहीं ही देखा हो ? क्योंकि विकास की जितनी अवधारणाएं बन सकती थी सब हमारे समय में ही प्रयुक्त हुई हैं, आजाद भारत की बात हो, समाजवादी विचारधारा की बात हो, बहुजन आंदोलन का सवाल हो, सामाजिक न्याय की लड़ाई का मामला हो सब कुछ इसी बीच परवान चढ़ा है। लेकिन उन्हें ऐसा नेतृत्व मिला जो सारी अवधारणाओं को धूल धूसरित कर दिया और ऐसे नायकों के हाथ में सत्ता गई जिन्होंने मूल उद्देश्य के विपरीत ही काम किया। जिसका खामियाजा आज देश की 85 फ़ीसदी आवाम को भोगना पड़ रहा है और उन अवधारणाओं पर किसी को विचार करने का न तो समझ, वक्त और ना ही सोच की ताकत ही है।
इन नेताओं की आर्थिक समृद्धि की राजनीतिक सोच के रानितिज्ञों के कुकर्मों का ही दुष्परिणाम आज यह महान बहुजन देश भोग रहा है, विकास की सारी धाराएं मोड़ दी गई है जो देश को पुरे मध्यकालीन पाखंडी और अज्ञानी तानाशाहीपूर्ण साम्राज्य की ओर ले जाने के लिए मुंह बाए खड़ी हैं । और निरन्तर खड़ी की जा रही हैं । सारे संवैधानिक अधिकारों को समाप्त किया जा रहा है जिस पर देश के चारों खंबे आश्चर्यचकित तरीके से मौन है या तो गुणगान करने में मशगूल हैं। आज हम जिस सत्ता के अधीन उम्मीद के पुल बांधे हुए हैं उसके अनुयाई जो वास्तव में नासमझी की हद तक समझ रखते हैं उन से कैसे निजात मिले यह तो गोरखपुर और फूलपुर की जनता ने बताया है । यदि यह जनता जागती रही और 2019 में इनका हिसाब किताब ठीक से कर दी तभी यह देश डॉ.बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में बने संविधान की रक्षा कर पाएगा। जबकि उनका नेतृत्व दिग्भ्रमित हो करके कहीं उन्हीं ब्राह्मणवादियों के इर्द गिर्द ना मंडराने लगे जिन्हें वह अपना हितैषी समझते हैं और वह हितैषी की बजाए उनका सर्वनाश करने पर रात दिन आमादा रहते हैं।
यही कारण है कि उन्हें अपने वैचारिक बहुजन की पूरी टीम (अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक इनमें से अधिकाँश चीजें अम्बेडकर साहित्य में मौजूद हैं ) भी ढूंढने होंगे और उनके आधार पर नीतियां बनाकर के भविष्य की राजनीति को बहुजन राजनीति के रूप में विकसित करना होगा जो निश्चित तौर पर आज के समाज में बहुत दूर खड़े हैं उन्हें सत्ता के समीप लाना होगा। अन्यथा मनुस्मृति के सिद्धांत निरंतर लागू किए जा रहे हैं जिससे देश की 85% फ़ीसदी अवाम निरक्षर और निरीह बन करके मजलूम और गुलामी की जिंदगी जीने को बाध्य न हो।
जैसा की हम देख रहे हैं विभिन्न क्षेत्रों में इसी तरह के फरमान जारी किए जा रहे हैं अभी ताजा ताजा परिणाम शिक्षा विभाग का है जिसमें देश की तमाम प्रमुख शिक्षण संस्थाओं को स्वायत्तशासी बना कर के यही संदेश दिया गया है कि वह अपनी मनमानी से उनके आकार प्रकार और उद्देश्य को बदल डालें जो संस्थाएं आमजन के लिए बनी थी उन्हें खासजन की बना दी जा रही हैं ? इसके नाना प्रकार के प्रयोग पिछले दिनों देखने को मिले हैं हम यदि अब न जागे तो गाय की पूंछ पकड़कर घर में कसाई की तरह घुस जाने की कथा कोई नई नहीं है हम लोगों ने पिछले काफी दिनों से गाय और गोबर से रूबरू होते हुए इस तरह के दुष्परिणाम देखने को बाध्य हुए हैं।
इन सारी स्थितियों के लिए जिन्हें जिम्मेदार ठहराया जा रहा है वे लोग समाजवाद बहुजनवाद और सामाजिक न्याय के आंदोलनों से निकले हुए लोग हैं जिन्होंने मनुवादी व्यवस्था को अंगीकृत करके मनुवाद को समाप्त करने की बजाय ऐसे मनुवाद का सृजन कर दिया है जिसको हटाना उनके बस का नहीं है । लेकिन अगर संविधान के अनुसार चुनाव हुए तो जनता ने मन बना लिया है कि अब वह इस तरह की गलती नहीं करेगी।
डॉ.लाल रत्नाकर
यह झलक है आगामी मनुस्मृतिवाद का और इसके लिए जिम्मेदार हैं इस देश के दलित पिछड़े और अल्पसंख्यक और उनके नेता, नेताओं के चट्टू और उनके समर्थक जिन्होंने झूठे, फर्जी, पिछड़े और गपबाज ठग को समझने में गहरी नासमझी दिखायी है। राजनीतिक ठगी का जो दौर हमने देखा है वह संभवत: मध्यकाल में भी किसी ने नहीं ही देखा हो ? क्योंकि विकास की जितनी अवधारणाएं बन सकती थी सब हमारे समय में ही प्रयुक्त हुई हैं, आजाद भारत की बात हो, समाजवादी विचारधारा की बात हो, बहुजन आंदोलन का सवाल हो, सामाजिक न्याय की लड़ाई का मामला हो सब कुछ इसी बीच परवान चढ़ा है। लेकिन उन्हें ऐसा नेतृत्व मिला जो सारी अवधारणाओं को धूल धूसरित कर दिया और ऐसे नायकों के हाथ में सत्ता गई जिन्होंने मूल उद्देश्य के विपरीत ही काम किया। जिसका खामियाजा आज देश की 85 फ़ीसदी आवाम को भोगना पड़ रहा है और उन अवधारणाओं पर किसी को विचार करने का न तो समझ, वक्त और ना ही सोच की ताकत ही है।
इन नेताओं की आर्थिक समृद्धि की राजनीतिक सोच के रानितिज्ञों के कुकर्मों का ही दुष्परिणाम आज यह महान बहुजन देश भोग रहा है, विकास की सारी धाराएं मोड़ दी गई है जो देश को पुरे मध्यकालीन पाखंडी और अज्ञानी तानाशाहीपूर्ण साम्राज्य की ओर ले जाने के लिए मुंह बाए खड़ी हैं । और निरन्तर खड़ी की जा रही हैं । सारे संवैधानिक अधिकारों को समाप्त किया जा रहा है जिस पर देश के चारों खंबे आश्चर्यचकित तरीके से मौन है या तो गुणगान करने में मशगूल हैं। आज हम जिस सत्ता के अधीन उम्मीद के पुल बांधे हुए हैं उसके अनुयाई जो वास्तव में नासमझी की हद तक समझ रखते हैं उन से कैसे निजात मिले यह तो गोरखपुर और फूलपुर की जनता ने बताया है । यदि यह जनता जागती रही और 2019 में इनका हिसाब किताब ठीक से कर दी तभी यह देश डॉ.बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में बने संविधान की रक्षा कर पाएगा। जबकि उनका नेतृत्व दिग्भ्रमित हो करके कहीं उन्हीं ब्राह्मणवादियों के इर्द गिर्द ना मंडराने लगे जिन्हें वह अपना हितैषी समझते हैं और वह हितैषी की बजाए उनका सर्वनाश करने पर रात दिन आमादा रहते हैं।
यही कारण है कि उन्हें अपने वैचारिक बहुजन की पूरी टीम (अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद, वैज्ञानिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक इनमें से अधिकाँश चीजें अम्बेडकर साहित्य में मौजूद हैं ) भी ढूंढने होंगे और उनके आधार पर नीतियां बनाकर के भविष्य की राजनीति को बहुजन राजनीति के रूप में विकसित करना होगा जो निश्चित तौर पर आज के समाज में बहुत दूर खड़े हैं उन्हें सत्ता के समीप लाना होगा। अन्यथा मनुस्मृति के सिद्धांत निरंतर लागू किए जा रहे हैं जिससे देश की 85% फ़ीसदी अवाम निरक्षर और निरीह बन करके मजलूम और गुलामी की जिंदगी जीने को बाध्य न हो।
जैसा की हम देख रहे हैं विभिन्न क्षेत्रों में इसी तरह के फरमान जारी किए जा रहे हैं अभी ताजा ताजा परिणाम शिक्षा विभाग का है जिसमें देश की तमाम प्रमुख शिक्षण संस्थाओं को स्वायत्तशासी बना कर के यही संदेश दिया गया है कि वह अपनी मनमानी से उनके आकार प्रकार और उद्देश्य को बदल डालें जो संस्थाएं आमजन के लिए बनी थी उन्हें खासजन की बना दी जा रही हैं ? इसके नाना प्रकार के प्रयोग पिछले दिनों देखने को मिले हैं हम यदि अब न जागे तो गाय की पूंछ पकड़कर घर में कसाई की तरह घुस जाने की कथा कोई नई नहीं है हम लोगों ने पिछले काफी दिनों से गाय और गोबर से रूबरू होते हुए इस तरह के दुष्परिणाम देखने को बाध्य हुए हैं।
इन सारी स्थितियों के लिए जिन्हें जिम्मेदार ठहराया जा रहा है वे लोग समाजवाद बहुजनवाद और सामाजिक न्याय के आंदोलनों से निकले हुए लोग हैं जिन्होंने मनुवादी व्यवस्था को अंगीकृत करके मनुवाद को समाप्त करने की बजाय ऐसे मनुवाद का सृजन कर दिया है जिसको हटाना उनके बस का नहीं है । लेकिन अगर संविधान के अनुसार चुनाव हुए तो जनता ने मन बना लिया है कि अब वह इस तरह की गलती नहीं करेगी।
↧
↧
दलित आंदोलन
चंद्र भूषण सिंह
सन्दर्भ-
मैं दलित चेतना और उनके संघर्ष को कोटिशः नमन करता हूँ क्योकि वे ही कौमें जिंदा कही जाती हैं जिनका इतिहास संघर्ष का होता है,जो अन्याय के प्रतिकार हेतु स्वचेतना से उठ खड़े होते हैं।
02 अप्रैल 2018 का दिन दलित चेतना का,संघर्ष का,बलिदान का,त्याग का ऐतिहासिक दिन बन गया है क्योंकि बगैर किसी राजनैतिक संगठन या बड़े नेता के आह्वान के सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया पर दलित नौजवानों/बुद्धिजीवियों की अपील पर पूरे देश मे दलित समाज का जो स्वस्फूर्त ऐतिहासिक आंदोलन उठ खड़ा हो गया,वह देश के तमाम बड़े आंदोलनों को पीछे छोड़ते हुए एक अद्वितीय और अनूठा आंदोलन हो गया है।
अब तक देश मे जितने बड़े अंदोलन हुए उन सबका नेतृत्व या तो किसी नेम-फेम वाले बड़े व्यक्ति/नेता ने किया या किसी बड़े राजनैतिक/सामाजिक संगठन द्वारा प्रायोजित हुवा जिसका भरपूर प्रचार -प्रसार विभिन्न माध्यमो से या मीडिया द्वारा किया गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी ऐक्ट में किये गए अमेंजमेंट के बाद सोशल मीडिया पर एक न्यूज उछला कि 2 अप्रैल को दलित समाज द्वारा भारत बंद किया जाएगा।इस आह्वान का कर्ता-धर्ता कौन है,यह अपील किसकी है,ये सब कुछ बेमानी हो गया और सोशल मीडिया पर उछले इस अपील की परिणति यह हुई कि 2 अप्रैल को पूरा भारत बिना किसी सक्षम नेतृत्व के बुद्धजीवियों/छात्रों/नैजवानो और प्रबुद्ध जनो के सड़क पर उतर जाने से बंद हो अस्त-ब्यस्त हो गया।
इस आंदोलन का एक पहलू जहाँ यह रहा कि पूरे देश के दलित बुद्धजीवी एकजुट हो करो या मरो के नारे के साथ जय भीम का हुंकार भरते हुए देश भर में सड़कों पर आ गये तो कथित प्रभु वर्ग अपने अधिकारों को बचाने हेतु आंदोलित संविधान को मानते हुए शांतिपूर्ण सत्याग्रह कर रहे वंचित समाज के लोगो पर ईंट-पत्थर-गोली चलाते हुए इस आंदोलन को हिंसक बना दिया जिसमें 14 दलित साथी शहीद हो गए।
यह आंदोलन अपने आप मे बहुत ही महत्वपूर्ण आंदोलन हो गया है क्योंकि अपने संवैधानिक अधिकारों को महफ़ूज बनाये रखने के लिए शहादत देने का ऐसा इतिहास अब तक किसी कौम ने नही बनाई है।यह दलित समाज ही है जो अपने अधिकारों व सम्मान के लिए लड़ना व मरना जानता है।
मैं निःसंकोक कह सकता हूँ कि इस देश मे यदि कोई जगी कौम है तो वह या तो दलित कौम है या प्रभु वर्ग।इस देश का 60 फीसद पिछड़ा बिलकुल मुर्दा है क्योंकि उसे न अपने अधिकार का भान है और न अपने सम्मान की फिक्र,यह तो जैसे है वैसे ही चलता रहे,इस मान्यता में जीने वाली जमात है।
2 अप्रैल को sc/st ऐक्ट को निष्प्रभावी बनाने के विरुद्ध आहूत अंदोलन ने जता दिया है कि दलित अपने अधिकार की हिफाजत हेतु किसी भी सीमा तक जा सकता है जबकि सवर्ण तबका भी मण्डल कमीशन लागू होने के बाद देश भर में रेल-बसों को फूंकते हुए खुद का आत्मदाह कर यह दिखा चुका है कि वह इतनी आसानी से देश पर अपने वर्चस्व को खत्म नही होने देने वाला है।2 अप्रैल के आंदोलन में भी यह सवर्ण तबका हथियार लेकर शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे 14 दलित आंदोलनकारियो की हत्या कर जता दिया है कि इस देश मे आंदोलन करने,बोलने व कुछ भी कर डालने का एकाधिकार उसी का है।
इस देश का पिछड़ा तो ऐसा कुचालक है जो उसी डाल को काटता है जिस पर वह बैठा हुआ है।यह पिछड़ा अपनी दुर्दशा का दोष कभी अम्बेडकर साहब पर तो कभी खुद के भाग्य पर डालता है क्योंकि इसे स्वयं संघर्ष करने में रुचि नही है।यह विशाल किन्तु खण्ड-खण्ड में बंटा पिछड़ा कभी अपने अधिकार,मान-सम्मान के लिए लड़ने में विश्वास रखा ही नही है।संविधान के अनुच्छेद 15(4),16(4) एवं 340 के क्रियान्वयन के लिए यह पिछड़ा वर्ग देश भर में कभी संगठित हो लड़ा ही नही।1977 में अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता के कारण बिहार व यूपी में क्रमशः कर्पूरी ठाकुर जी व रामनरेश यादव जी गालियां खाते हुए इन असंगठित पिछडो को कुछ आरक्षण दिए थे तो 1990 में राजनैतिक दुर्घटनावश वीपी सिंह जी ने मण्डल लागू कर इन सोए हुए पिछडो को 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया था।ये पिछड़े पूर्ण मण्डल लागू करवाने,जातिवार जनगणना करवाने,प्राइवेट सेक्टर सहित हर क्षेत्र में आरक्षण पाने हेतु कभी न लड़े, न सोचें ही।ये पिछड़े सचमुच के पिछड़े हैं लेकिन देश का sc/st निश्चित तौर पर बहादुर वर्ग है जो लड़कर अधिकार लेना जानता है।
2 अप्रैल 2018 के भारत बंद में अभी सुश्री मायावती जी खुलकर नही आईं जबकि रामविलास पासवान जी इस आंदोलन को बेमानी बता डाले तो रामदास अठावले जी लखनऊ आ मायावती जी को भाजपा से गठबंधन करने का दावत दे डाले लेकिन बिना किसी राजनैतिक सहयोग के (बिहार में तेजश्वी यादव जी के सहयोग को छोडकर करके) दलित समाज ने अपनी शहादत देते हुए जो अमिट लकीर खींच डाली है वह आंदोलनों के इतिहास में माइल स्टोन सिद्ध होगा।
मैंने अपने जनपद देवरिया में देखा कि 2 अप्रैल 2018 के आंदोलन में मुझको लेकर कुंल 4-5 लोग ही पिछड़े वर्ग के रहे होंगे जो इस आंदोलन का हिस्सा बने वरना पूरी भीड़ शिक्षित दलित समाज की ही थी।आज देश का दलित समाज बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर जी के "शिक्षित हो,संगठित हो,संघर्ष करो"के मूल मंत्र को आत्मसात कर तरक्की की राह पर अग्रसर है।
2 अप्रैल 2018 को अपने अधिकारों की रक्षा हेतु आंदोलन करते हुए शहीद हुए भीम सैनिकों को नमन करते हुए देश भर के दलित बुद्धजीवियों को साधुवाद कि उन्होंने बिना किसी सक्षम नेतृत्व के संघर्ष की ऐतिहासिक इबारत लिखते हुए यह जता दिया कि वे मरी कौम नही हैं और अन्याय बर्दाश्त करने वाले भी नही हैं।
भीम सैनिकों को एक बार पुनः उनकी शहादत पर नमन और तीब्र संघर्ष पर भीम सलाम!
------------------------------
02 अप्रैल 2018 का दिन दलित चेतना का,संघर्ष का,बलिदान का,त्याग का ऐतिहासिक दिन बन गया है क्योंकि बगैर किसी राजनैतिक संगठन या बड़े नेता के आह्वान के सिर्फ और सिर्फ सोशल मीडिया पर दलित नौजवानों/बुद्धिजीवियों की अपील पर पूरे देश मे दलित समाज का जो स्वस्फूर्त ऐतिहासिक आंदोलन उठ खड़ा हो गया,वह देश के तमाम बड़े आंदोलनों को पीछे छोड़ते हुए एक अद्वितीय और अनूठा आंदोलन हो गया है।
अब तक देश मे जितने बड़े अंदोलन हुए उन सबका नेतृत्व या तो किसी नेम-फेम वाले बड़े व्यक्ति/नेता ने किया या किसी बड़े राजनैतिक/सामाजिक संगठन द्वारा प्रायोजित हुवा जिसका भरपूर प्रचार -प्रसार विभिन्न माध्यमो से या मीडिया द्वारा किया गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी ऐक्ट में किये गए अमेंजमेंट के बाद सोशल मीडिया पर एक न्यूज उछला कि 2 अप्रैल को दलित समाज द्वारा भारत बंद किया जाएगा।इस आह्वान का कर्ता-धर्ता कौन है,यह अपील किसकी है,ये सब कुछ बेमानी हो गया और सोशल मीडिया पर उछले इस अपील की परिणति यह हुई कि 2 अप्रैल को पूरा भारत बिना किसी सक्षम नेतृत्व के बुद्धजीवियों/छात्रों/नैजवानो और प्रबुद्ध जनो के सड़क पर उतर जाने से बंद हो अस्त-ब्यस्त हो गया।
इस आंदोलन का एक पहलू जहाँ यह रहा कि पूरे देश के दलित बुद्धजीवी एकजुट हो करो या मरो के नारे के साथ जय भीम का हुंकार भरते हुए देश भर में सड़कों पर आ गये तो कथित प्रभु वर्ग अपने अधिकारों को बचाने हेतु आंदोलित संविधान को मानते हुए शांतिपूर्ण सत्याग्रह कर रहे वंचित समाज के लोगो पर ईंट-पत्थर-गोली चलाते हुए इस आंदोलन को हिंसक बना दिया जिसमें 14 दलित साथी शहीद हो गए।
यह आंदोलन अपने आप मे बहुत ही महत्वपूर्ण आंदोलन हो गया है क्योंकि अपने संवैधानिक अधिकारों को महफ़ूज बनाये रखने के लिए शहादत देने का ऐसा इतिहास अब तक किसी कौम ने नही बनाई है।यह दलित समाज ही है जो अपने अधिकारों व सम्मान के लिए लड़ना व मरना जानता है।
मैं निःसंकोक कह सकता हूँ कि इस देश मे यदि कोई जगी कौम है तो वह या तो दलित कौम है या प्रभु वर्ग।इस देश का 60 फीसद पिछड़ा बिलकुल मुर्दा है क्योंकि उसे न अपने अधिकार का भान है और न अपने सम्मान की फिक्र,यह तो जैसे है वैसे ही चलता रहे,इस मान्यता में जीने वाली जमात है।
2 अप्रैल को sc/st ऐक्ट को निष्प्रभावी बनाने के विरुद्ध आहूत अंदोलन ने जता दिया है कि दलित अपने अधिकार की हिफाजत हेतु किसी भी सीमा तक जा सकता है जबकि सवर्ण तबका भी मण्डल कमीशन लागू होने के बाद देश भर में रेल-बसों को फूंकते हुए खुद का आत्मदाह कर यह दिखा चुका है कि वह इतनी आसानी से देश पर अपने वर्चस्व को खत्म नही होने देने वाला है।2 अप्रैल के आंदोलन में भी यह सवर्ण तबका हथियार लेकर शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे 14 दलित आंदोलनकारियो की हत्या कर जता दिया है कि इस देश मे आंदोलन करने,बोलने व कुछ भी कर डालने का एकाधिकार उसी का है।
इस देश का पिछड़ा तो ऐसा कुचालक है जो उसी डाल को काटता है जिस पर वह बैठा हुआ है।यह पिछड़ा अपनी दुर्दशा का दोष कभी अम्बेडकर साहब पर तो कभी खुद के भाग्य पर डालता है क्योंकि इसे स्वयं संघर्ष करने में रुचि नही है।यह विशाल किन्तु खण्ड-खण्ड में बंटा पिछड़ा कभी अपने अधिकार,मान-सम्मान के लिए लड़ने में विश्वास रखा ही नही है।संविधान के अनुच्छेद 15(4),16(4) एवं 340 के क्रियान्वयन के लिए यह पिछड़ा वर्ग देश भर में कभी संगठित हो लड़ा ही नही।1977 में अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता के कारण बिहार व यूपी में क्रमशः कर्पूरी ठाकुर जी व रामनरेश यादव जी गालियां खाते हुए इन असंगठित पिछडो को कुछ आरक्षण दिए थे तो 1990 में राजनैतिक दुर्घटनावश वीपी सिंह जी ने मण्डल लागू कर इन सोए हुए पिछडो को 27 प्रतिशत आरक्षण दे दिया था।ये पिछड़े पूर्ण मण्डल लागू करवाने,जातिवार जनगणना करवाने,प्राइवेट सेक्टर सहित हर क्षेत्र में आरक्षण पाने हेतु कभी न लड़े, न सोचें ही।ये पिछड़े सचमुच के पिछड़े हैं लेकिन देश का sc/st निश्चित तौर पर बहादुर वर्ग है जो लड़कर अधिकार लेना जानता है।
2 अप्रैल 2018 के भारत बंद में अभी सुश्री मायावती जी खुलकर नही आईं जबकि रामविलास पासवान जी इस आंदोलन को बेमानी बता डाले तो रामदास अठावले जी लखनऊ आ मायावती जी को भाजपा से गठबंधन करने का दावत दे डाले लेकिन बिना किसी राजनैतिक सहयोग के (बिहार में तेजश्वी यादव जी के सहयोग को छोडकर करके) दलित समाज ने अपनी शहादत देते हुए जो अमिट लकीर खींच डाली है वह आंदोलनों के इतिहास में माइल स्टोन सिद्ध होगा।
मैंने अपने जनपद देवरिया में देखा कि 2 अप्रैल 2018 के आंदोलन में मुझको लेकर कुंल 4-5 लोग ही पिछड़े वर्ग के रहे होंगे जो इस आंदोलन का हिस्सा बने वरना पूरी भीड़ शिक्षित दलित समाज की ही थी।आज देश का दलित समाज बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर जी के "शिक्षित हो,संगठित हो,संघर्ष करो"के मूल मंत्र को आत्मसात कर तरक्की की राह पर अग्रसर है।
2 अप्रैल 2018 को अपने अधिकारों की रक्षा हेतु आंदोलन करते हुए शहीद हुए भीम सैनिकों को नमन करते हुए देश भर के दलित बुद्धजीवियों को साधुवाद कि उन्होंने बिना किसी सक्षम नेतृत्व के संघर्ष की ऐतिहासिक इबारत लिखते हुए यह जता दिया कि वे मरी कौम नही हैं और अन्याय बर्दाश्त करने वाले भी नही हैं।
भीम सैनिकों को एक बार पुनः उनकी शहादत पर नमन और तीब्र संघर्ष पर भीम सलाम!
------------------------------
"2 अप्रैल 2018 का आंदोलन"
------------------------//---------------------
★"संविधान रक्षक सेनानी"हैं भाजपा सरकार के दमन का मुकाबला करने वाले वंचित समाज के आंदोलनकारी....
★सपा/बसपा को घोषित करना चाहिए कि आंदोलन में मरने वाले आंदोलन कारियों के परिजनों को नौकरी/मुआवजा दिया जाएगा तथा मुकदमो में फँसाये गए लोग पेंशन पाएंगे....
संविधान,आरक्षण और एससी/एसटी ऐक्ट को लेकर 2 अप्रैल 2018 को हुए ऐतिहासिक आंदोलन में करीब 12 वंचित समाज के आंदोलनकारी जान गवां बैठे हैं जबकि आज भी इस आंदोलन में हिस्सा लेने वाले आंदोलनकारियों का दमन जारी है जिसमे इनके विरुद्ध मुकदमा लिखने,छापा डालने,पिटाई करने व जेल भेजने का क्रम शुरू है।
भारतीय संविधान,आरक्षण एवं अपने अधिकारों की हिफाजत के लिए वंचितों ने हुंकार क्या भरा,देश भर का प्रभु वर्ग इनका मुखालिफ हो गया।क्या सरकार,क्या पुलिस और क्या आम अभिजात्य जन,सबकी भृकुटि इन वंचित तबके के आंदोलनकारियों पर चढ़ी हुई है।
पुलिस आंदोलनकारियों को "चमारिया"कहते हुए थाने में बेल्टों से पीट रही है तो आम अभिजात्य जन सड़को पर "मारो चमारों"को कहते हुए पिटाई कर रहे हैं।सरकार सारे देश मे इन आंदोलनकारियों के दमन पर उतारू है।मुकदमो की झड़ी लगा दी गयी है।लोगो के घरों में छापे पड़ रहे हैं जिस पर भाजपा के ही सांसदों को चिट्ठी लिखनी पड़ रही है लेकिन स्थिति ढाक के तीन पात जैसी है।
आखिर अपने संवैधानिक अधिकारों को बचाये रखने के लिए शांतिपूर्ण सत्याग्रह करना कौन सा गुनाह है?आखिर क्यों इन आंदोलनकारियों पर संविधान द्रोही प्रभु वर्ग के लोगो ने भी गोली चलाया और पुलिस ने भी गोली चलाया?आखिर क्यों इन्हें आंदोलन करने के बाद मुकदमो में फंसाया जा रहा है और छापे डाल करके गिरफ्तारी कर पीटा जा रहा है?क्या कारण है कि इस स्वस्फूर्त आंदोलन से देश की सत्ता भयाक्रांत हो गयी है और दमन पर उतारू है?
देश भर में संविधान बचाने हेतु वंचित समाज के सजग बुद्धिजीवियों ने जिस तरीके से आंदोलन किया है वह उन्हें "संविधान रक्षक सेनानी"का दर्जा देने योग्य है।सपा और बसपा को चाहिए कि इनके नेता श्री अखिलेश यादव जी व सुश्री मायावती जी को साझा प्रेस कांफ्रेंस कर यह घोषित कर देना चाहिए कि देश मे संविधान बचाने हेतु आंदोलन करते हुए जो कोई मरेगा उसे शहीद का दर्जा देते हुए उसके परिजनों को सपा/बसपा की सरकार बनने पर नौकरी व मुआवजा दिया जाएगा तथा उत्पीड़न,मुकदमा,पिटाई व जेल जाने वाले आंदोलनकारियों को "संविधान रक्षक सेनानी"घोषित करते हुए सम्मानजनक पेंशन दिया जाएगा।
सपा/बसपा ने ज्यों ही इन आंदोलनकारियों को "संविधान रक्षक सेनानी"घोषित कर पेंशन व मुआवजा देने की बात किया त्यों ही इन वंचित समाज के क्रांतिकारी साथियो का उत्पीड़न बन्द हो जाएगा और आंदोलन करने वाले साथियो का हौसला हजार गुना बढ़ जाएगा वरना देश फासीवाद की गिरफ्त में चला जायेगा और इसके विरुद्ध कोई लड़ने वाला भी नही मिलेगा।
मेरी पुरजोर अपील है कि श्री अखिलेश यादव जी व सुश्री मायावती जी संविधान की रक्षा हेतु संघर्षरत प्रबुद्ध जनो का उत्पीड़न रोकने हेतु आगे आएं और इन्हें "संविधान रक्षक सेनानी"घोषित कर इनके सम्मान व अधिकार की रक्षा व उत्पीड़न के विरुद्ध प्रतिकार हेतु आवाज बुलंद करें।
जय भीम!जय मण्डल! जय लोहिया!
↧
हम लड़ेंगे !
↧
मुठभेड़
समकालीन सामाजिक सरोकारों से आहत मन को सत्य की सियाही से झकझोरने का माद्दा मेरे कवि मित्र परम स्नेही आ. बी.आर. विप्लवी की कलम से-
डॉ.लाल रत्नाकर
---------
डॉ.लाल रत्नाकर
---------
ऑखों में धूल झोंक के बहुजन विकास में
कातिल ने कहा जान वो डालेगा लाश में
कातिल ने कहा जान वो डालेगा लाश में
दलितों को घेर लेने को हिन्दू की खोल में
आम्बेडकर को लाए हैं भगवा लिबास में
आम्बेडकर को लाए हैं भगवा लिबास में
यजमान पुजारी बने तो दान कौन दे
होती है दोस्ती कहीं घोड़े और घास में
होती है दोस्ती कहीं घोड़े और घास में
मन मरजी संविधान का होता है मुताला
गिरवी है लोकतन्त्र महाजन के पास में
गिरवी है लोकतन्त्र महाजन के पास में
परजीवियों ने पेय बताया है खून को
कहते हैं सोमरस है धरम की गिलास में
कहते हैं सोमरस है धरम की गिलास में
है मीडिया रपट कि वे मुठभेड़ में मरे
निकले थे घर को छोड़ अम्न की तलाश में
निकले थे घर को छोड़ अम्न की तलाश में
बोलो भी विप्लवी कि है पाबन्दी प्यास पे
वर्ना खामोशी मारेगी पानी की आस में ।
वर्ना खामोशी मारेगी पानी की आस में ।
मुताला=व्याख्या
-------------------------------
-बी0 आर0 विप्लवी
-------------------------------
-बी0 आर0 विप्लवी
↧