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एकात्म मानवतावाद

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कुछ विद्वान मित्रों का मानना है कि भाजपा की तरफ आम लोगों का आकर्षण बढ़ रहा है और वह इसलिए कि उन लोगों के मन में उनमें  हिंदू होने का मुख्य केंद्र में ही आकर्षण दिख रहा है जिससे उनका रुझान उधर बढ़ा है।(विशेष रूप से गैर यादव पिछड़े और गैर जाटव (चमार) दलित में)
यहाँ यह दृष्टव्य है की ई वी एम प्रसंग भी बहुत कुछ इसके लिए जिम्मेदार है फिर भी बाकी संभावनाओं पर विचार किया जा सकता है जिसमें प्रचंड बहुमत की सत्ता का मुख्य केंद्र कुछ सवर्ण जातियों के इर्द गिर्द घूम रहा है यहाँ अति दलित और अति पिछड़े लगभग  नदारद हैं।  
आजकल उत्तर प्रदेश में नई सरकार अपनी तरह के अधिकारियों को लगाने में व्यस्त है अब यह सारी व्यवस्था किस आधार पर की जा रही है इसका लेखा-जोखा तो कुछ दिनों के बाद ही पता चलेगा क्योंकि जब सरकारी आती हैं तो वह ढूंढ ढूंढ करके अपने चहेतों को पूरे प्रदेश भर में तैनात कर देती हैं।
यही काम पिछली सरकार ने भी किया होगा और पूरे 5 साल तक इस तरह की व्यवस्था में वह व्यस्त रही कि किस अधिकारी को कहां लगाया जाए। इस सरकार में और उस सरकार में फर्क इतना है कि यहां पर एक बहुत ही मजे हुए सन्यासी और राजनीतिज्ञ का नजरिया है दूसरी तरफ अनुभवहीन और अवसरवादी नेता पुत्र का उत्साह था यद्यपि इस समय राजनीतिक गलियारों में यह बहस का मुद्दा नहीं है ।
अब यह कैसे तय हो कि जिस झूठ फरेब और प्रोफगंडे से भारतीय राजनीति के समकालीन दौर में प्रदेशों और छोटी छोटी इकाइयों तक इसी तरह का पाखंड प्रबल हो रहा है उसका क्या उपाय है कि 5 सालों बाद कौन आ रहा है, मुख्य मुद्दा तो यह है कि इन 5 वर्षों तक प्रदेश की बदहाली या खुशहाली किस रूप में आने जा रही है, मौजूदा सरकार ने तमाम राजनेताओं की जन्मतिथि यों पर होने वाली छुट्टियों को समाप्त कर दिया है इससे हर पढ़ा लिखा आदमी खुश तो है, इन छुट्टियों के खत्म किए जाने से उनके बारे में लोग जल्दी भूल जाएंगे जिन्हें साल भर छुट्टियों के नाम पर लोग गालियां देते फिरते थे कि इन्होंने क्या किया है देश के लिए ।
मुझे बहुत आशंका है कि प्रदेश में छुट्टियां बहुत हो गई थी और तमाम ऐसे वैसे लोगों के नाम पर हो गई थी जिनमें बहुत कम लोग राष्ट्रवादी थे या यह कहा जाए की दलित और पिछड़े भी थे उनके लिए प्रदेश में छुट्टियां हो यह एक तबका कैसे बर्दाश्त कर सकता है इसलिए उनका खत्म किया जाना अनिवार्य है प्रतीत हो रहा था, आने वाले दिनों में अगर राष्ट्रवादियों के नाम पर उनके पर्व और उत्सव मनाए जाएंगे तो छुट्टियां तो करनी पड़ेगी।
इतनी छुट्टियों के साथ ही और छुट्टियां जुड़ी और इन छुट्टियों के साथ उनकी छुट्टियां जुड़ती तो बहुत सारी छुट्टियां हो जाती इसलिए जरूरी था कि पहले पुरानी छुट्टियों को खत्म किया जाए ताकि नई छुट्टियां करने में सुविधा हो। और दलित और पिछड़े तथा अल्पसंख्यकों के नाम पर कोई छुट्टी हो यह मौजूदा राष्ट्रवाद को कैसे बर्दाश्त हो सकता है।
मेरा मानना है कि जो लोग सत्ता में आए हैं वह प्रचार प्रसार और प्रोपगंडा में बहुत विश्वास करते हैं यहां तक कि इनकी पुरानी सरकार थी तब इन्होंने शाइनिंग इंडिया नाम का प्रचार अभियान शुरू किया था ठीक उसी तरह से जैसे पिछली सरकार ने विकास के नाम पर जनता का वोट लेना चाहा था ।
धर्म तो वही रहेगा लेकिन उसमें नए दर्शन का समावेश किया जाना है जिसके समावेश से दुनिया में फैले समाजवाद को कैसे ब्राह्मणवाद निकलेगा उसके विभिन्न सारे रास्ते तलाशे जा रहे हैं और इसी तलाश में जारी है दीनदयाल उपाध्याय का एकात्मवाद यह एक तरह का नव ब्राह्मणवाद है जिस में घुमा-फिरा करके यह बताने की कोशिश की गई है कि किस तरह से भारतीय दर्शन को माननीय से पूरी दुनिया से आई हुई समाजवादी और साम्यवादी विचारधारा के मूल को तहस-नहस करना और नव ब्राह्मणवाद फैलाना यह सिद्धांत मूलतः इस अंधभक्त देश में बहुत आसानी से आध्यात्म और धर्म के नाम पर फैलाया जा सकेगा जिससे कि कोई सत्ता की तरफ देखने की हिम्मत न करें और साधु संत मध्यकाल की तरफ इस देश को ले जाने का पूरा इंतजाम करें और सारा विकास उनके इर्द-गिर्द हो यही नव एकात्मवाद होगा ऐसी संभावना दिख रही है।



एकात्म-(वाद) मानवतावाद, पर परिचर्चा ही भारतीय संविधान की मूल अवधारणा को विवादित करने के उद्देश्य को हवा देती है, जिन महानुभावों को भारत के संविधान में आस्था नहीं है वे अपने अलग तरह  विचार लेकर भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हैं और सांस्कृतिक समाजवाद को बढ़ावा देते हुए संविधान के मूल तत्वों से सामन्यजन का ध्यान हटाते है।  -  डॉ.लाल रत्नाकर)
पं. दीनदयाल उपाध्याय : भारतीय संस्कृति और एकात्म मानव दर्शन

पं. दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति व समाज ''स्वदेश व स्वधर्म''तथा परम्परा व संस्कृति''जैसे गूढ़ विषय का अध्ययन, चिंतन व मनन कर उसे एक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया। ...

अशोक बजाज पं. दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति व समाज ''स्वदेश व स्वधर्म''तथा परम्परा व संस्कृति''जैसे गूढ़ विषय का अध्ययन, चिंतन व मनन कर उसे एक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।

न्होंने देश की राजनैतिक व्यवस्था व अर्थतंत्र का भी गहन अध्ययन कर शुक्र, वृहस्पति, और चाणक्य की भांति आधुनिक राजनीति को शुचि व शुध्दता के धरातल पर खड़ा करने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति समाज व सृष्टि का ही नहीं अपितु मानव के मन, बुध्दि, आत्मा और शरीर का समुचय है। उनके इसी विचार व दर्शन को ''एकात्म मानववाद''का नाम दिया गया, जिसे अब एकात्म मानव-दर्शन के रूप में जाना जाता है। एकात्म मानव-दर्शन राष्ट्रत्व के दो पारिभाषित लक्षणों को पुनर्जीवित करता है, जिन्हें ''चिति '' (राष्ट्र की आत्मा) और ''विराट'' (वह शक्ति जो राष्ट्र को ऊर्जा प्रदान करता है) कहते हैं।मूल समस्या: स्व के प्रति दुर्लक्ष्यआजादी के बाद देश की राजनैतिक दिशा स्पष्ट नहीं थी क्योंकि आजादी के आंदोलन के समय इस विषय पर बहुत च्यादा चिन्तन नहीं हुआ था। अंग्रेजी शासनकाल में सबका लक्ष्य एक था ''स्वराज''लाना लेकिन स्वराज के बाद हमारा रूप क्या होगा? हम किस दिशा में आगे बढेंग़े? इस बात का ज्यादा विचार ही नहीं हुआ। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में कहा था कि हमें ''स्व'' का विचार करना आवश्यक है। बिना उसके स्वराय का कोई अर्थ नहीं। केवल स्वतंत्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती। जब तक कि हमें अपनी असलियत का पता नहीं होगा तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है। परतंत्रता में समाज का ''स्व''दब जाता है। इसीलिए लोग राष्ट्र के स्वराय की कामना करते हैं, जिससे वे अपनी प्रकृति और गुणधर्म के अनुसार प्रयत्न करते हुए सुख की अनुभूति कर सकें। प्रकृति बलवती होती है। उसके प्रतिकूल काम करने से अथवा उसकी ओर दुर्लक्ष्य करने से कष्ट होते हैं। प्रकृति का उन्नयन कर उसे संस्कृति बनाया जा सकता है, पर उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। आधुनिक मनोविज्ञान बताता है कि किस प्रकार मानव-प्रकृति एवं भावों की अवहेलना से व्यक्ति के जीवन में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति प्राय: उदासीन एवं अनमना रहता है। उसकी कर्म-शक्ति क्षीण हो जाती है अथवा विकृत होकर विपथगामिनी बन जाती है। व्यक्ति के समान राष्ट्र भी प्रकृति के प्रतिकूल चलने पर अनेक व्यथाओं का शिकार बनता है। आज भारत की अनेक समस्याओं का यही कारण है। नैतिक पतन एवं अवसरवादिताराष्ट्र का मार्गदर्शन करने वाले तथा राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकांश व्यक्ति इस प्रश्न की ओर उदासीन हैं। फलत: भारत की राजनीति, अवसरवादी एवं सिद्वांतहीन व्यक्तियों का अखाड़ा बन गई है। राजनीतिज्ञों तथा राजनीतिक दलों के न कोई सिद्वांत एवं आदर्श हैं और न कोई आचार-संहिता। एक दल छोड़कर दूसरे दल में जाने में व्यक्ति को कोई संकोच नहीं होता। दलों के विघटन अथवा विभिन्न दलों में गठबंधन किसी तात्विक मतभेद अथवा समानता के आधार पर नहीं अपितु उसके मूल में चुनाव और पद ही प्र्रमुख रूप से रहते हैं। अब राजनीतिक क्षेत्र में पूर्ण स्वेच्छाचारिता है। इसी का परिणाम है कि आज भी सभी के विषय में जनता के मन में समान रूप से अनास्था है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं कि जिसकी आचरणहीनता के विषय में कुछ कहा जाए तो जनता विश्वास न करे। इस स्थिति को बदलना होगा। बिना उसके समाज में व्यवस्था और एकता स्थापित नहीं की जा सकती। भारतीय संस्कृति एकात्मवादीराष्ट्रीय दृष्टि से तो हमें अपनी संस्कृति का विचार करना ही होगा, क्योंकि वह हमारी अपनी प्रकृति है। स्वराय का स्व-संस्कृति से घनिष्ठ संबंध रहता है। संस्कृति का विचार न रहा तो स्वराज की लड़ाई स्वार्थी व पदलोलुप लोगों की एक राजनीतिक लड़ाई मात्र रह जायेगी। स्वराय तभी साकार और सार्थक होगा जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन सकेगा। इस अभिव्यक्ति में हमारा विकास भी होगा और हमें आनंद की अनुभूति भी होगी। अत: राष्ट्रीय और मानवीय दृष्टियों से आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों का विचार करें। भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का, संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं। व्यक्ति के सुख का विचार सम्पूर्ण समाज या सृष्टि का ही नहीं, व्यक्ति का भी हमने एकात्म एवं संकलित विचार किया है। सामान्यत: व्यक्ति का विचार उसके शरीर मात्र के साथ किया जाता है। शरीर सुख को ही लोग सुख समझते हैं, किन्तु हम जानते हैं कि मन में चिंता रही तो शरीर सुख नहीं रहता। प्रत्येक व्यक्ति शरीर का सुख चाहता है। किन्तु किसी को जेल में डाल दिया जाए और खूब अच्छा खाने को दिया जाए तो उसे सुख होगा क्या? आनंद होगा क्या? इसी प्रकार बुद्वि का भी सुख है। इसके सुख का भी विचार करना पड़ता है। क्योंकि यदि मन का सुख हुआ भी और आपको बड़े प्रेम से रखा भी तथा आपको खाने-पीने को भी खूब दिया, परंतु यदि दिमाग में कोई उलझन बैठी रही तो वैसी हालत होती है, जैसे पागल की हो जाती है। पागल क्या होता है? उसे खाने को खूब मिलता है, हष्ट-पुष्ट भी हो जाता है, बाकी भी सुविधाएं होती हैं। परंतु दिमाग की उलझनों के कारण बुद्वि का सुख प्राप्त नहीं होता। बुद्वि में तो शांति चाहिए। इन बातों का हमें विचार करना पड़ेगा।

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